मीलों लम्बी ये ख़ामोशी, चांदनी में झुलसती
सदियों की तन्हाई, कहीं कोई नहीं; दूर
तक, सिर्फ़ मैं हूँ और मुझ से
बरहम मेरी परछाई,
ये बाज़गश्त
कैसी
जो मुझ से निकल कर मुझ तलक लौट आई,
कौन है जो दे रहा कुछ पहचानी सी
दस्तक, ये वहम मेरा कहीं हो
न जाए इक सच्चाई,
वजूद है कोई
या आईना,
सूरतें सभी एक जैसीं, ये ज़मीं अपनी या है -
परायी, घूरते से हैं सन्नाटे, अँधेरे में
भटकतीं क़ातिल निगाहें, किस
से करें दोस्ती और किस
से करें बेवफ़ाई,
इस मुखौटे
के शहर में किस पे करें भरोसा, कौन देगा यहाँ
ज़िन्दा होने की गवाही - - -
- शांतनु सान्याल
- शांतनु सान्याल
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