दस्तक
एक दस्तक; जो उम्र भर पीछा करे
नींद हो या जागरण, वो खड़ा
था देर तक, दरवाज़े पर
लिए न जाने क्या
चाहत, कोई
सन्देश,
या मुस्कराने की राहत, देर कर दी
ज़िन्दगी ने द्वार खोलने में
इतनी कि उसे आवाज़
छू न सकी, वो
कोई दूत
था, या अक्स जाना पहचाना, रख
गया कोई शून्य इत्रदान
देहरी में इस तरह
कि सुरभित
हैं तबसे
अंतर्मन की संकुचित गलियां, कभी
भूले से वो आ जाये इस सोच
में रखता हूँ दिल के
कपाट खुले
आठों
पहर,जीवन चाहता है कि भर लें वो
शून्यता जो वक़्त ने दिए,
छलक जाएँ फिर
ख़ुश्बू की
बूंदे
उदास अहातों तक बिखर कर - - -
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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