30 अप्रैल, 2023

पुरनम आंखों का राज़ - -


पूछा जो भीगे आंखों का राज़ तो मुस्कुरा दिए,

इसी बहाने बुझते हुए चिराग़ हम ने जला लिए,

कोई न था दूर तक, आख़िर आवाज़ किसे देते,
तारों को ही अपना, रहनुमा ए सफ़र बना लिए,

कुछ ख़ामोश दर्द उम्र भर रहते हैं, शब्द विहीन,
बड़ी ख़ूबसूरती से हम ने, तमाम ग़म छुपा लिए,

इस मोड़ पर आ कर सभी रहगुज़र खो जाते हैं,
इसी बियाबां पर आ कर, घर अपना सजा लिए,

कुछ भी नहीं संचय, एक मुहोब्बत के अतिरिक्त,
पूछा जो हालात तो उजड़ा हुआ दिल दिखा दिए,
* *
- - शांतनु सान्याल

उड़ान से पहले - -

अंततः सभी लोग लौट आते हैं, अपने ही खंडहर में,
भूल ठिकाने की चिट्ठी लौट आती है उसी डाकघर में,

ध्वंस स्तूप में पड़े रहते हैं, बेतरतीब से वर्ण परिचय,
हम खोजते हैं, गुमशुदा शब्दों को उजड़े हुए शहर में,

इक रक्तिम गुलाब की तरह, दरवाज़े में कोई होता है,
यादों के साए हम करते हैं, तलाश समय के भंवर में,

आख़िरकार लौट आते हैं उसी श्रृंखलित खूंटी के पास,
मीठी सी टीस छुपी रहती है, किसी को खोने के डर में,

अदृश्य स्पर्श, कालांतर में नीलाभ तितली बन जाते हैं,
कुछ आवेग उड़ान लेते ही, डूब जाते हैं बीच समंदर में,

जीवन के संग्रहालय में, बंद रह जाते हैं असंख्य संदूक,
दरअसल, ख़ाली हाथ ही चलना है इस अज्ञात सफ़र में,
* *
- - शांतनु सान्याल

   

 

29 अप्रैल, 2023

असमय की बरसात - -

असमय की वृष्टि, निशांत प्रहर में देती है राहत,
अंतरतम से, कोई नहीं करता किसी का स्वागत,

हर किसी के पास होती है, तरजीह की फ़ेहरिश्त,
सभी चाहते हैं, सूद के साथ पाना अपनी लागत,

वो जांनशीन हो कर भी है पुरअसरार कोई रक़ीब,
फिरते हैं सुकून से, लिए अपने आस्तीं में आफ़त,

इक अजीब सी सुगबुगाहट है सागर की सतह पर,
अंदर ही अंदर, कहीं साहिल के विरुद्ध है बग़ावत,
* *
- - शांतनु सान्याल
 

28 अप्रैल, 2023

विज्ञापनों की रिले रेस - -

हर कोई एक विज्ञप्ति लिए होता है किसी न
किसी मोड़ पर, " फ़िक्र न करो, मैं हूँ ना सब कुछ ठीक हो जाएगा," ये और
बात है कि कोई किसी के पास
नहीं होता, हम जन्म से
विज्ञप्ति के अभ्यस्त
होते हैं उसी के
साथ जीते
और
मरते हैं, हर कोई किसी न किसी सफ़र में -
मिलता है अप्रत्याशित रूप में, बहोत
कुछ कह जाता है ज़िन्दगी के
फ़लसफ़े, और मुस्कुरा कर
उतर जाता है, कल्पना
और वास्तविकता
के बीच किसी
एक स्टेशन
में, हम
लौट
आते हैं फिर किसी नए विज्ञप्ति की तरफ,
जिस पर लिखा होता है " धूप और छांव
का नाम ही जीवन है, चिंता मत
करो हम तुम्हारे साथ हैं,"
कांधे से एक अदृश्य
हाथ धीरे धीरे
उतर जाता
है, हम
पुनः
तलाशते हैं नयी विज्ञप्ति, हमारा गंतव्य आ
कर कब गुज़र जाता है हम जान ही नहीं
पाते, बस नज़र के सामने दौड़ते से
दिखाई देते हैं ढेर सारे रंग बिरंगे
विज्ञापनों की भीड़, अंतहीन
इस सफ़र में दरअसल
हमारे सिवा साथ
में कोई भी
नहीं होता।
* *
- - शांतनु सान्याल  


















 


 

27 अप्रैल, 2023

अभी रात है बाक़ी - -


न बुझाओ शमअ, कि अभी बहोत रात है बाक़ी,

अभी अभी खुल के महके हैं गुल ए नज़दीकियां,
पहलू से न दूर जाओ ज़रा दिल की बात है बाक़ी,
सुबह की आरज़ू है बेमानी, कल का यक़ीं न कर,
न उतरे ये ख़ुमार अभी इश्क़ की सौगात है बाक़ी,
ज़िंदगी ओ मौत के बीच ख़ुद को यूँ न उलझाओ,
मिलें रूह से रूह कुछ जीने के वजूहात है बाक़ी,
* *
- - शांतनु सान्याल

न जाने कहाँ थे हम - -

वो चाँद रात थी या कोहरे से उभरती कोई
आग़ाज़ ए सुबह, हमें कुछ भी याद
नहीं, ज़मीं थी ठहरी हुई या
आसमां था गर्दिश -
बदोन, हमें
कुछ भी ख़बर नहीं, कोई था हमारे वजूद
में इस क़दर शामिल कि, हमें ख़ुद
का पता नहीं, इक बहाव का
आलम बेलगाम दूर
तक, और हम
खो चले
थे किसी की निगाहों में रफ़ता रफ़ता - -
कब थमी शबनमी चाँदनी, और
कब उठी सितारों की
महफ़िल, हमें
कुछ भी
इल्म नहीं, कि हम न थे गुज़िश्ता रात - -
तेरी बज़्म में ऐ दुनिया वालों !
* *
- शांतनु सान्याल


26 अप्रैल, 2023

तलाश - -

कुछ एक शब्दों के फ्रेम में सिमटी हुई है
ज़िन्दगी, कुछ बिखरे हुए बिंदुओं
को जोड़ती है एक प्याली
गरम चाय, दहलीज़
से झांकती है
कच्ची
धूप,
अख़बार के पन्नों पर इक सरसरी निगाह,
वही रोज़ का सिलसिला, सुर्ख़ियों में
लिखी रहती हैं अर्द्ध सत्य की
कहानियां, इक नज़र
टेलीविज़न पर
वही चारा
फेंकते
हुए
रंगीन विज्ञापन, सांप सीढ़ी का खेल बस
यूँ ही चलता रहता है आठों पहर, कोई
सुध किसी की नहीं लेता है यहाँ,
नैतिक - अनैतिक सब कुछ
है बराबर, जब तक है
पास टका, तब
तक दुनिया
रहे प्रिय
सखा,
वरना, खोजते रहो ख़ुद को गुमशुदा की
तलाश में, दिखाओ अपनी तस्वीर
और पूछो, क्या आपने इन्हें
देखा है, चाय ख़तम
और धुआं भी
लापता ।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

   

25 अप्रैल, 2023

देह प्राण के अतिक्रम - -


सूखे पत्तों का इतिहास कोई नहीं लिखता,
फूलों पर लिख जाते हैं लोग महा गाथिका,

शाखों के धुव्र छुपाए रखते हैं पत्तों के भ्रूण,
खिलते हैं पुष्प चाहे गहनतम रहे नीहारिका,

सभी कुछ मंचस्थ होता है, हमारे सम्मुखीन,
दृष्टिभ्रम करते हैं सम्मोह के रंगीन यवनिका,

अत्यंत एकाकी रहता है कोई दर्शक दीर्घा में,
जब करते हैं, मौन संवाद शुक और सारिका,

पूर्णिमा के मधुरस में जब डूबे सारा निधिवन,
देह प्राण तब समान जब मिलें कृष्ण राधिका,
* *
- - शांतनु सान्याल 

वापसी का सुख - -

लौटने की प्रक्रिया अनवरत रहती है गतिमान,
डूब जाते हैं सभी कुछ ग्रह नक्षत्र या अभिमान,

लौटते वक़्त सूर्य, छोड़ जाता है कुछ स्मृतियां,
रंगीन मेघों के मध्य, शुक्रतारा का अभ्युत्थान,

आंगन के घेरों से उठती हैं बेला फूल की महक,
साँझ बाती भर जाते हैं, जीवन के रिक्त स्थान,

लौट आते हैं बूढ़े बरगद के सभी मूल अधिवासी,
होता नहीं कभी, जीवन यापन का पूर्ण अवसान,

उभर आते हैं, गहन नील में सहस्त्र तारक वृन्द,
सुदूर अरण्य में आलोकमय जुगनू करते हैं गान,

लौट आते हैं उजान देश से सभी मयूर पंखी नाव,
नींद में कुछ कहती है, शिशु की मधुरिम मुस्कान,  
* *
- - शांतनु सान्याल

24 अप्रैल, 2023

अशेष रात्रि कथा - -

मृग तृष्णा में मुब्तिला, यहां हर एक चेहरा है,
अशेष है अंदर रात, कहने को बाहर सवेरा है,

अधूरापन ही बढ़ाता है,  जीवन को दम ब दम,
सतह है निःशब्द लेकिन, अंदर बहोत गहरा है,

किसी तरह दौड़ के पहुंचा, किंतु रेल न मिली,
सही भी है, कौन भला, किस के लिए ठहरा है,

कुछ ख़्वाब के कतरन झूलते हैं सूखे दरख़्त पे,
रात मर चुकी कमरे के अंदर अंधेरे का पहरा है,

बिखरे पड़े हैं मुखौटे पंखविहीन पतंगों की तरह,
अन्तःकरण के महानगर को, सम्मोहन ने घेरा है,
* *
- - शांतनु सान्याल

अनुबंध - -

ये सच है कि जीवन इतना सहज नहीं
दुःख दर्द, व्यथाएं, डूबते उभरते 
इन्हीं क्षणों में इच्छाओं का 
होता है पुनर्जन्म, माया 
जो बनावटी हो कर 
भी दे जाती है 
स्वप्नों के 
बीज, 
यही सजल अनुभूति बचाते हैं भावनाओं
को असामयिक मृत्यु से, मरुभूमि
के पथ में खिलाते हैं थूहर, 
नागकनी, मरूद्यान में 
ले आते हैं लुप्तप्राय 
श्रोत, स्वप्निल 
पर्वत, पुष्प 
गंध, 
यहीं कहीं रेतेली टीलों में ज़िन्दगी खोजती 
है प्रेम, अनुराग की बूंदें, अस्तित्व का 
अर्थ, किसी के आँखों से टपकता 
हुआ प्रदीपन, कारवां के
लिए रात्रि सराय, व 
आकाशगंगा,
अंतहीन यात्राओं से लौटते हुए तारक वृन्द 
कहते हैं - डूबना नियति है एक दिन, 
फिर भी टूटने से पहले ज़रा नभ 
को तो कर जाएँ आलोकित, 
अंधकारों से था जो 
अनुबंध - निभा 
जाएँ।

-- शांतनु सान्याल 

नज़्म

किसी की याद में ज़िन्दगी यूँ बर्बाद न कीजे
क़ुदरत के बदलते अक्श, फूल ओ वादियाँ
दिल के सोये जज़्बात जगा जाएँ, 
किसी से मुहोबत की थी तुमने वसीयत तो न
लिख डाली, हवावों ने रुख़ ग़र मोड़ ली हो, 
तो तुम अपनी राह बदल डालो,
वफ़ा- बेवफाई के क़िस्से हो गये पुराने ज़िंदगी के फ़लसफ़े बदल डालो |
-- शांतनु सान्याल 

ग़ज़ल - - ज़रा सी बात थी

ज़रा सी बात थी इशारों से कहा होता
हजूम सा था हद-ए-नज़र तमाशाई,
हम डूब के गुज़रते जानिब-ए-साहिल
राज़-ए-उल्फत किनारों से कहा होता,
तमाम रात चांदनी सुलगती रही
इज़हार-ए-वफ़ा आबसारों से कहा होता,
गुमसुम सा आसमाँ तनहा तनहा,
तड़प दिल की चाँद तारों से कहा होता,
हवाओं में तैरती तहरीर-ए-इश्क
आँखों की बातें बहारों से कहा होता,
हम जान लुटाए बैठे हैं
इम्तहान-ए-अज़ल अंगारों से कहा होता |
-- शांतनु सान्याल

जीवन की परिभाषाएँ

जीवन की परिभाषाएँ तुमने जो गढ़ी
असलियत से दूर पायी, ज़िन्दगी
तो हमने भी जी है, फूलों को
दर्द से मुस्कुराते और
चाँदनी को
खुद-ब-खुद जलते देखा, घाटियों के
प्रतिध्वनि में चीखती, कराहती
आवाज़ें सुनी, इन्द्रधनुष के
रंगों में बिखरती
मासूम की
हसरतें
देखीं,
प्रेम अनुराग के मायाजाल में - -
ग़रीब जज़्बातोँ को घुट
घुट कर मरते देखा,
सुबह जो मेरे
सीने से
लिपट
दोस्ती के नए आयाम रच गया,
साँझ ढलते उसी ने रुख़
अपना मोड़ लिया,
किसी झरने
की तरह,
तुमने शायद ज़िन्दगी दूर से - -
देखी होगी, नीले पर्बतों को
ख़्वाबों में ढाल दिया,
क़ाश ज़िन्दगी
तुम्हारे
ग़ज़ल के मानिंद होती ख़ूबसूरत
होती।
--- शांतनु सान्याल  

या तुम या हम जाने

गुलमोहरी शाम, किताब
लौटाने के बहाने,
निगाहों की
बातें, या
तुम या हम जाने,
काँपते ओठों
के राज़,
दिल
के वो अफ़साने, आग बरसाती
रातें, या तुम या हम जाने,
बाँहों में सिमटने की
ख़ुशी, बेक़रारी
के तराने,
बिन बादल बरसातें, या तुम
या हम जाने, बेखौफ़
लुटने की लज्ज़त,
इश्क़ के ख़ज़ाने,
कभी सहमे
कभी
घबराते,या तुम या हम जाने।
२ - रह रह के दर्द उठता, आह
गिरती संभलती, तब जा
के मुहोब्बत का
इज़हार
किया होता, सोच में गुमसुम
होते, दीवानगी का नशा
बढ़ता, जुनूं में बिखर
कर साहब, प्यार
किया होता।

- शांतनु सान्याल


अंतराल

एक दीर्घ अंतराल, शायद
पलाश खिलें हों, बचपन
की धुप छाँव, कुछ
धुंधले कुछ
उज्जवल  
समय विकराल, शायद
अनायास मिलें हों,
आम्रकुंजों में प्रवासी कोकिल
कुहके दिन ढलते, होली
के रंगों में वो
कच्ची प्रणय बेलें,
जीवन मायाजाल,
शायद कहीं
अमलतास हिलें हों, आषाढी
रिमझिम और भीगते
अपरिपक्व देह ,
सोंधी माटी
की महक,
नव उभरते उमंगों का कम्पन
कमल शोभित ताल,
शायद प्रणय
आभास
गीले हों।
 --- शांतनु सान्याल

मेरुदंड विहीन - -

मेरुदंड विहीन समाज
पूर्वाग्रहों से ग्रसित,
एक पथिक व
असंख्य
बहुमुखी सर्प, पूजा - -
स्थल के सीढ़ियों
में दो हाथ जोड़े,
जीवन की
भीख
मांगता रहा पथिक - -
दिग्भ्रमित दर्शन,
उन्मादित
अनुयायी
रक्त व
गरल अविराम प्रवाहित।
अदृश्य शक्ति के लिए
मानव रक्त बहता
रहा। क़ाश
अशरीरी
शक्ति इन्हें रोक पाती
शुद्ध व पवित्र सही
अर्थों में बना
पाती।

-- शांतनु सान्याल


जीवन - -

जीवन की परिभाषाएं जो तुमने गढ़ी
वास्तविकता से कहीं दूर थीं,
ज़िन्दगी हमने भी जी है
हर पल ख़ुद को छला,
न कोई फूल ही
मुस्कराता
पाया,
न चांदनी को  गुनगुनाते,
घाटियाँ उदास थीं
झरनों में थे
अदृश्य
इन्द्रधनुष, मायावी, स्वप्नमयी
पृथ्वी तुम्हारी कृति, हम ने
तो हर तरफ नग्न
सत्य देखा ।

-- शांतनु सान्याल



23 अप्रैल, 2023

जाने किस सोच में - -

अस्फुट लहज़े में था धुंध भरी वादियों का सफ़र,
उनींदी आँखों से देखा, अस्पष्ट सी एक रहगुज़र,

न कोई अरण्य, न ही मरुस्थल, न कोई गुलशन,
अदृश्य देशांतर जो कर गया अंतरतम को बेहतर,

उस प्रवाहित द्वीप में थी शांत आलोकमय वृष्टि,
युग्म प्रणय से परे, एक अनुपम संतुष्टि की लहर,

न पृथ्वी न आकाश न ही चाहतों की दिगंत रेखा,
मध्य हृदय था अवस्थित जिसे ढूंढा किया उम्रभर,

कोई नहीं अधिष्ठित, इस संसार में सभी हैं यायावर,
जागे तो है सवेरा जाने किस सोच में जागे रात भर,
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 
  

22 अप्रैल, 2023

सरकती परछाइयां - -

जी उठेंगी एक दिन, सभी अप्रकाशित कहानियां,
असंख्य मूक कथाएं, प्रसुप्त से हैं, हमारे दरमियां,

आकाशमुखी, वृक्ष बनने की चाह किसे नहीं होती,
अंकुरण से लेकर, डालियों तक हैं कई परेशानियां,

कभी स्लेट पटिया है तो रंगीन कलम नहीं मिलते,
जन समारोह में भी, जीवन को घेरती हैं तन्हाइयां,

मृग मरीचिका ही तो हैं सभी आत्मीयता के शपथ,
मायावी आश्रय की तरह छलती हैं घनी परछाइयां,

ज़रूरी नहीं की हर एक, प्रतियोगिता को जीत जाएं,
बचाने अथवा उड़ाने में, फ़र्क़ नहीं रखती हैं आंधियां,
* *
- - शांतनु सान्याल

21 अप्रैल, 2023

अपरिमेय प्रणय - -

कोई प्रतीक्षा नहीं करता, फिर भी
अपनी धुरी पर लौटना होता है,
कुछ आशाएं जुड़ी रहती हैं
भूमिगत जड़ों की तरह,
वृक्ष को हर मौसम
के लिए तैयार
रहना होता
है ताकि
साया
से कोई महरूम न रहे, इसी एक
बिंदु पर ठहरा होता है ये
जीवन, चाहतों की
फ़ेहरिश्त में
कहीं ख़ुद
को
नगण्य करना ही दरअसल प्रेम की
पराकाष्ठा है, जहाँ पर पहुँच कर
हम अपने बिम्ब में किसी
और का चेहरा देखते
हैं, उस में ख़ुद को
एकाकार पाते
हैं चाहे वो
दिव्य
हो
या साकार, प्रणय प्रभा किसी एक -
तक सिमित नहीं होती, वो
अपने आप में अपरिमेय
है - -
* *
- - शांतनु सान्याल

20 अप्रैल, 2023

देह दान - -

स्मृतियाँ हैं ओस की बूंदें, उजाले में हो जाएंगी मृत,
देहदान के बाद जीवन किसी के साथ रहेगा जीवित,

ये सोच कर अच्छा लगता है कि किसी के काम आएं,
अंतिम प्रहर, इस देह मृत्तिका से कोई तो हो उपकृत,

कुछ ख़्वाब अधूरे हैं, मेरी आँखों से कोई और करे पूरा,
श्राद्ध के बदले, मेरे अपने क्यों न लगाएं छोटा दरख़्त,

अस्थियों के कंकाल से, भावी चिकित्सक लाभ उठाएं,
सतत करें संधान, सृष्टि के गर्भ में ही है विरल अमृत,

सभी उपहार समय के साथ, हो जाते हैं जीर्ण पुरातन,
सुख या दुःख हर वक़्त एक नन्हा पौधा करे वितरित,  
 * *
- - शांतनु सान्याल

19 अप्रैल, 2023

परिचित किनारा - -

मखमली अहसास में कोई गीत लिखना,
 
लौटती हैं शाम ढले, यादों की कश्तियाँ,
जाते जाते गोधूलि को मेरा प्रीत लिखना,

तुलसी तले, माटी का जब प्रदीप जले,
हथेली पर काजल से, मनमीत लिखना, 

पीपल के पातों में रुक जाएँ हवाएं, न  -
बुझे लौ दुआ के इसे बहुगुणित लिखना,

बिखरते बूंदों में हैं कहीं बच्चों की हंसी
किलकारियों से उसे अनगिनत लिखना,

पसीने और कच्चे धान की ख़ुश्बू मिला -
 नदी के बहते धारों में हार जीत लिखना, 
  
झूलतीं बरगद की जटाएं, ज़रा सा ठहरो,
चाँदनी रात में नया प्रणय संगीत लिखना, 

अनजान सा हूँ मैं, इन भूल भूलैयों से, हो
सके तो किनारों अपना परिचित लिखना |

- -  शांतनु सान्याल 

17 अप्रैल, 2023

अहद ए इश्क़ - -

रेत पे लिखे अल्फ़ाज़ हैं लहरें मिटा जाएंगे,
कुछ पल ही सही, संग तुम्हारे बिता जाएंगे,

दांव पेंच के सिवा कुछ भी नहीं इस जहां में,
ख़ुद की पारी हार के, हम तुम्हें जिता जाएंगे,

इतना कठिन भी नहीं मुश्किलों में मुस्कुराना,
सुलगते सहरे में जीने की अदा सीखा जाएंगे,

कोई नहीं इस जहां में, सौ फ़ीसद खरा सोना,
आंखों के सामने ही लोग पीतल मिला जाएंगे,

ख़ालिस रूह ले कर, जो फिरता है मारा मारा,
अहदे इश्क़ पर, दस्तख़त उसकी दिला जाएंगे,
* *
- - शांतनु सान्याल









कोई निशानी - -

रख जा कोई तो निशानी दिल पे मनफ़र्द

ख़ुश्बू की तरह, लिखा है जिस्म ओ 
जां पर किसी का नाम हमने,
लाज़वाल सुलगती इक 
आरज़ू की तरह, 
रंग जाए 
जो रूह तलक, दे जा कोई हिना ए इब्दी 
पुरअसर किसी इल्ही क़ाबू की 
तरह, वो तेरी चाहत कम 
तो नहीं, किसी मसफ़ा
ज़िन्दगी से, ले 
चल फिर 
मुझे चाहे जिधर राह ए निजात की - - -
जानिब !

- शांतनु सान्याल 

मनफ़र्द - निराली 
लाज़वाल - शाश्वत
 इब्दी - अनंत 
इल्ही - दैवी
मसफ़ा - परिशुद्ध
निजात - मुक्ति 

16 अप्रैल, 2023

हमेशा के लिए - -

न जगाए नींद से कोई मुझे, कि हैं
मेरी आँखें ख़्वाब दीदन इस
लम्हा, इस लम्हे से
ज़िन्दगी को
मिलती
है कुछ तो दर्द ए रिहाई, इस पल
में, मैं जी लेता हूँ कुछ उम्र
से ज़ियादा, न जगाए
इस वक़्त कोई
मुझे, कि
हूँ मैं अभी किसी की बाँहों में - -
ख़ुश्बू की मानिंद बिखरा
बिखरा हुआ, किसी
की साँसों में
मिला
है अभी अभी, मुझे अपना पता !
कि अब मैं गुमशुदा रूह
नहीं, न पुकारो मुझे
लौटती हुईं -
आवाज़
ए माज़ी, है गुम मेरा वजूद इस
पल किसी में हमेशा के
लिए - -

* *
- शांतनु सान्याल



15 अप्रैल, 2023

दर्पण के नेपथ्य में - -

दर्पण के उस पार भी है एक अनछुई दुनिया,
बिंब से बाहर काश, कभी निकल पाते,
सभी नदियां आख़िर जा मिलती
हैं समुद्र की अथाह गहराइयों
में, सभी पक्षी लौट आते
हैं सांझ ढले अपने
नीड़ में, अंधेरे
के उस पार
कहीं
आबाद है उजालों की दुनिया काश, बिहान
तक यूँ ही साथ साथ चल पाते, बिंब से
बाहर काश, कभी निकल पाते |
सभी यात्राओं का अंत है
निश्चित, टहनियों से
जुड़े रहने का सुख
होता है क्षणिक,
जीर्ण पत्तों
को एक
दिन
गिरना है भूमि पर, सभी रात्रि का अंत होता
दिगंत रेखा के पार, कुछ भी नहीं यहां
चिरस्थायी, आरोह अवरोह का
खेल है सारा, काश, स्वर्ण
मोहर की तरह हम भी
शत प्रतिशत शुद्धता
में ढल पाते, बिंब
से बाहर काश,
कभी निकल
पाते |
* *
- - शांतनु सान्याल

हम खिलें हर हाल में - -

हम खिलें हर हाल में चाहे जितना भी हो
आसमां अब्र आलूद, राह तकती
है बहारें तेरी इक नज़र के
लिए, ढूंढ़ती है नूर
ए महताब
दर -
ब दर, मंज़िल मंज़िल, सिर्फ़ तेरे दिल -
के रहगुज़र के लिए, ये अँधेरे जो
अक्सर कर जाते हैं परेशां
पल दो पल के लिए,
हैरां न हो ये
ज़रूरी
हैं -
तलाश ए रौशनी के सफ़र के लिए, कहाँ
मय्यसर है, हर चीज़ का दिल के
मुताबिक़ ढलना, ज़िन्दगी
का ये अधूरापन ही
दिखाता है  हर
क़दम
ख्वाब रंगीन, और यही बनाते हैं दिलकश
किनारे, जज़्बाती लहर के लिए !

* *
- शांतनु सान्याल


14 अप्रैल, 2023

उठता हुआ धुआं - -

कुछ ख़्वाब आधी रात फड़फड़ाते
हैं, किसी पंख विहीन तितली
की तरह, पहली किरण
से पहले झर जाते
हैं जज़्बात किसी
नाज़ुक कली
की तरह,

अहाते में अनाम परिंदा, अक्सर
सुबह सवेरे डाकिए की तरह
पुकारता है, न जाने कौन
बरसों बाद भी, उजड़े
हुए गुलशन को
लफ़्ज़ों से
संवारता
है,

खिड़की के उस पार सुदूर नील
पर्वतों पर अब तक उठ रहे
हैं धूम्र अवशेष, किस की
मायावी छुअन झांकती
है, देह के बहोत
अंदर अहर्निश,
अनिमेष,
* *
- - शांतनु सान्याल

 

13 अप्रैल, 2023

हाल ए दिल अपना - -

न चाह कर भी गुज़रना पड़ता है
ज़िन्दगी इक अंधी सुरंग
सी है, बहुत जल्दी
नियत भी भर
जाएगी,
बाहरी
पैरहन बद रंग सी है,

अंदर की दुनिया कोई नहीं
देखता, चाहे वो कितनी
ख़ूबसूरत हो, चमकीले
उतरन का है
ज़माना
असलियत की गलियां तंग सी है,

कोई भी मुड़ कर नहीं देखता,
ग़र सितारों का सफ़र
गर्दिश में हो, टूटते
गए सभी रंगीन
धागे अपने
आप
क़िस्मत कटी पतंग सी है,

बचना नहीं आसां वक़्त अपना
महसूल हर हाल में करता
है वसूल, सुख दुःख
सब बराबर
आजकल
दिल
की हालत मस्त मलंग सी है |
* *
- - शांतनु सान्याल




12 अप्रैल, 2023

अनाहूत वृष्टि - -

इक टीस सी उभरती है कोयल के कुहुक
में, चंद्रबिंदु की तरह पड़े रहते हैं
सजल भावनाएं पलकों के
बीच में, झर चले हैं
किंशुक कुसुम,
उदास से
निःस्तब्ध खड़े हैं मधूक वन, लौटने को
है मधुमास, ऋतु चक्र का है अपना
ही पृथक विधान, ज़्यादा देर
तक नहीं रहता शून्य
स्थान, कोई न
कोई भर
जाता
है प्राण वायु शिथिल निःश्वास में, अदृश्य
माधुर्य छुपा रहता है असमय की
सींच में, चंद्रबिंदु की तरह पड़े
रहते हैं सजल भावनाएं
पलकों के बीच में |
* *
- - शांतनु सान्याल 

11 अप्रैल, 2023

अंतिम बिंदु - -

अन्तिम बिन्दु में पहुंच कर हर चीज़ जाती है
बिखर, चाहे प्रेम हो या बुझता हुआ
आदिम नक्षत्र, फिर भी जीवन
चाहता है बनना तुम्हारे
अन्तःस्थल का
जलता हुआ
सुरभित
धूप, पाना चाहता हैअमरत्व का दिव्य शिखर,
अन्तिम बिन्दु में पहुंचकर हर चीज़ जाती
है बिखर | भस्मके वक्षस्थल में
गिरे हुए कुछ ओस बूंद,
कालान्तर में बन
जाएंगे विरल
मोतियों
के जीवाश्म, हर एक प्रतिफलन से उभरेंगे
प्रणयी किरण, प्रेम विफल होता है
लेकिन व्यर्थ नहीं, सृष्टि के अंत
में भी वो खोजेगा हमारे
विलुप्त पद चिन्ह,
चाहेगा रचना
नव सृजन,
उस महा
तिमिर
में भी सिर्फ़ तुम मुझे आओगी नज़र,
अन्तिम बिन्दु में पहुंच कर हर
चीज़ जाती है
बिखर |
- - शांतनु सान्याल


मौन स्पर्श - -

गहन अंधकार में वो निगाहों का स्पर्श
छूना चाहती हैं पलकों की ज़मीं,
दशकों बाद भी गुज़रना
चाहती है, नेत्र बिंदुओं
से होकर, एक
अद्भुत सा
रोमांच
छुपा
रहता है आज भी उस उड़ते हुए चुम्बन
में ! वो निगाहें अनवरत करती हैं
पीछा, महा जनस्रोत से हो कर
नितांत एकाकी पलों में,
घर करना चाहती
हों जैसे देह
की रक्त
तंतुओं
में,
वो अलौकिक अनुभूति उड़ा ले जाती है
सप्त गगन के उस पार, पुनर्जन्म
का एहसास होता है हिय के
स्पंदन में, एक अद्भुत
सा रोमांच छुपा
रहता है आज
भी उस
उड़ते
हुए चुम्बन में !
* *
- - शांतनु सान्याल

10 अप्रैल, 2023

लापता रहनुमा - -

ज़िन्दगी के सफ़र में, यूँ तो दोस्त बेहिसाब थे,
जलते ही बुझ गए, कुछ चिराग़ ए इंक़लाब थे,

एहसास ए जद्दो जेहद का, अर्थ ही नहीं मालूम,
वो शख़्सियत, दरअसल पैदाइशी कामयाब थे,

हर दौर में लोग दौड़ते हैं, शाहना चेहरे के पीछे,
यूँतो हम भरी महफ़िल में इक खुली किताब थे,

कौन बांध कर रख सकता है, उम्रभर किसी को,
कभी हम भी, मौसम ए सरमा के आफ़ताब थे,

नाख़ुदाओं का तिलिस्म, हम ने देखा है अक्सर,
साहिल दूर मुस्कुराता रहा बस हम ज़ेरे आब थे,

मजबूरियां थीं बहोत, लिहाज़ा बेज़ुबान बने रहे,
रहनुमा सभी पुराने शीशी में बंद जदीद शराब थे,
* *
- - शांतनु सान्याल 

09 अप्रैल, 2023

गहन अंतःस्थल में - -

रक्तिम सूर्य डूबा है, जलता हुआ बेहाल,
पुनः निगाहों में, घिर आई है संध्याकाल,

तृषित जीवन, तलाशता है बून्द भर मेह,
घाव भरने के लिए चाहिए, कुछ अंतराल,

तारे हैं डूबने को, दिल के यूँ ही क़रीब रहो,
मिटने को है, प्राची में रात का शून्यकाल,

क्यों कांपता सा है, शरीर का जीर्ण पिंजर,
बेचैन है उड़ने को मन पाखी सांझ सकाल,

जन्म मृत्यु, हास्य क्रंदन, सर्व है गतिमान,
कभी हर्षोल्लास, कभी जीवन रहे निढाल,

इक अदृश्य ऋण सा है, अनुरागी अनुबंध,
पृथ्वी गगन, दिगंत रेखा बांधे नाभि नाल,

लौकिक अलौकिक सभी शून्य में प्लावित,
सिर्फ़ तुम ही तुम हो अंतरतम में बहरहाल,
* *
- - शांतनु सान्याल       

08 अप्रैल, 2023

मजरूह रात - -

 गीली काठ से धुआँ उठता रहा, देह है अध जला,
वही उधेड़ बुन सुबह शाम का यकसां सिलसिला,

दस्तकों के भीड़ में, ज़िंदगी खोजती है अपनापन,
जिसे ढूंढा किए उम्र भर, वो शख्स कभी न मिला,

कितने ही हिस्सों में ख़ुद को तक़सीम कर देखा है,
मेरा साया, ख़ुद मुझ से बारहा ग़ैरमुत्मइन निकला,

जज़्बात के फंदों से निकलना, यूं आसां नहीं होता,
सभी रिश्ते हैं सतही, ज़ेर ए ज़मीं रहता है फ़ासला,

रात को गुज़रना है, रोज़ की तरह यूँ ही बरहना पा,
बुझता नहीं फिर भी उफ़क़ पार चिराग़ ए मरहला,
* *
- - शांतनु सान्याल


सुबह की पहली किरण - -

उन निगाहों में कहीं, ख़ुश्बुओं की इक अंजुमन सी है,
रात रुक जाए पलकों के तले, उम्रभर की थकन सी है,

इश्क़ ए चार दीवारी के बाहर, जी है कि लगता ही नहीं,
दहलीज़ के पार ज़िन्दगी, टूटी हुई शाख़ ए चमन सी है,

न जाने कितने ख़ानों में, बंट चुकी है अम्ल इंसानियत,
सरबराहों के गोशा ए दिल में पोशीदा इक शिकन सी है,

उजाले की चाहत में अंधेरों का है यूँ मुसलसल तआक़ब,
शगुफ़्ता गुलाब का ख़्वाब, सुबह की पहली किरण सी है,

निगाहों के परे है एहसास ए रूह की यूँ बेइंतहा आवारगी,
मुहोब्बत की हालत, सदियों से सुलगती इक दहन सी है,
* *
- - शांतनु सान्याल

   
   









07 अप्रैल, 2023

मृगतृष्णा - -

बिहान और सांझ के मध्य बहती
जाए समय की धारा, अनंत
प्रणय हो जन्म जन्मांतर
का, एकमेव
शुक्रतारा,

उठे निःश्वासों में परस्पर के
लिए, सुधामय प्राण वायु,
एकाकार हो देह प्राण
अंतर्मन में बसे
मोक्ष का
किनारा,

जनम मरण रहे गणना के परे,
नियति रहे सदा अडिग,
बहुत कुछ कह
जाता है,
टूटता
हुआ
चमकदार सितारा,

चौंसठ घरों से हो कर पहुंचना
होता है राजन के दरबार,
अपना अपना
दृष्टिकोण
है कौन
भला
जीता कौन हारा,

अदृश्य इच्छापत्र के पृष्ठों
पर हैं सभी नामित
हस्ताक्षर, सब
कुछ का
अंत है
निश्चित, न कुछ तुम्हारा न
हमारा,
* *
- - शांतनु सान्याल 

06 अप्रैल, 2023

ग़ज़ल - - अंदाज़ तेरा दिल दुखाने वाला




फिर वही अंदाज़ तेरा दिल दुखाने वाला
 
हूँ अपनी ही दुनिया में इस क़द्र मशगूल
ख़बर ही नहीं कि है कोई यहाँ आने वाला,

छू के जाती हैं समंदर की नमकीन हवाएं,
है शाम भी खुले ज़ख्मों को दिखाने वाला,

हज़ार कोशिश कर जाए ये भीगी सी रात,
सख्त सहरा की ज़मी, न मुस्कराने वाला,

तेरी चाहत में न जाने वो बात नहीं बाक़ी -
हो जादू या नशा, जिस्मो जां हिलाने वाला,

है मालूम मुझे मौजों पे यूँ नंगे पांव चलना,
चाहिए अब्र में घुलने का फ़न सिखाने वाला,

कोई ख़्वाब जो दे जाए तस्कीं बेक़रां, मुझे
अँधेरे में भी दिल की रौशनी दिखाने वाला,

वो मसीहा या कोई भूला फ़रिश्ता जो भी हो
मिले तो कहीं, टूटे दिलों को मिलाने वाला,

बियाबां में ज़िन्दगी के फूल खिलाने वाला !

- - शांतनु सान्याल



ग़ज़ल - - जिगर की आग

जिगर की आग और ये जलता हुआ आसमां -
ज़िन्दगी ठहरी रही देर तक बारिश की चाह में, 

वो बच्चा रोता रहा बीच सड़क, भीड़ में कहीं -
बचपन बिखरता रहा, एक वारिस की चाह में, 

गुलमोहर खिले, यहीं पे कहीं ये ख़बर ही नहीं -
हाथ बढे नहीं, सर झुके थे  आशीष की चाह में,

कौन गाता है रात ढले, तन्हां, दर्द भरी ग़ज़ल -
पत्थर न पिघले, उम्र गुज़री तपिश की चाह में, 

न छू यूँ बार बार इस मजरुहे ज़िन्दगी को तू -
चला हूँ टूटे  कांच पे, इक बख्शीश की चाह में,

देखा है, बहुत क़रीब से बहार को मुंह फेरते  -
हूँ अब तक नादां, किसी परवरिश की चाह में, 

 - - शांतनु सान्याल
 


  

ग़ज़ल - - इंतज़ार ए शब

झुकी नज़र में, कई इंतज़ार ए शब गुज़र गए,
टूटते तारों का पता तलाश करता रहा दिल,
फिज़ाएं, चाँद, ख़ुश्बू सभी अपने अपने घर गए,
ख़लाओं में गूंजती रही वो अँधेरे की सदाएँ,
शबनम, जुगनू, फूल, यूँ सीने में दर्द भर गए,
वो ख्वाहीश जो भटकती है, बियाबानों में
आ के सीने के बहोत क़रीब, ख़ामोश ठहर गए,
नाख़ुदा पुकारता रहा किनारों को बार बार
साहिल यूँ टूटा, ख़्वाबों की ज़मीं दूर बिखर गए,
ज़िंदगी इक मुद्दत के बाद मुस्करायी ज़रूर,
आये भी नज़र ज़रा,फिर न जाने वो किधर गए,
उस शबिस्तां में सुना है उतरतीं हैं कहकशां,
डूबने से क़ब्ल कश्ती, वो अहबाब सभी उतर गए,
सायादार दरख्तों में गुल खिले वक्ते मामूल,
हश्बे खिज़ां लेकिन रिश्तों के पत्ते सभी झर गए,

- - शांतनु सान्याल

अर्थ :   
  इंतज़ार ए शब - रात का इंतज़ार
  नाख़ुदा - मल्लाह
  कहकशां - आकाशगंगा  
   क़ब्ल - पहले
अहबाब - दोस्त
  वक्ते मामूल - सही समय
हश्बे  खिज़ां - पतझर के अनुसार
शबिस्तां - शयन कक्ष

ग़ज़ल - - न मिलो इस तरह

न मिलो इस तरह कि मिल के दूरियां और बढ जाए
तिश्नगी रहे ज़रा बाक़ी और दर्द भी असर कर जाए,

वो खेलते हैं दिलों से नफ़ासत और यूँ  सम्भल कर,
शीशे ग़र टूटे  ग़म नहीं, रिसते घाव मगर भर जाए,

अज़ाब ओ दुआ में फ़र्क़ करना नहीं था इतना आसां,
लूट कर दुनिया मेरी उसने कहा किस्मत संवर जाए,
    
साहिल कि ज़मीं थी रेतीली, पाँव रखना था मुश्किल,
उनको शायद खौफ़ था, कहीं ज़िन्दगी न उभर जाए,

डूबते सूरज को इल्म न था, समन्दर की वो गहराई, 
तमाम रात ख़ुद से उलझा रहा, जाए तो किधर जाए, 

उनकी  आँखों में कहीं बसते हैं जुगनुओं के ज़जीरे,
उम्मीद में बैठे हैं ज़ुल्मात, कि उजाले कभी घर आए,

-- शांतनु सान्याल
 
अर्थ :
तिश्नगी - प्यास
नफ़ासत - सफाई से
अज़ाब - अभिशाप
ज़जीरे - द्वीप
ज़ुल्मात - अँधेरे  


अपनी तलाश - -

नव प्रजन्म को, भय मुक्त आसमान मिले,
अंकुरित बीजों को अपना हक़ समान मिले,

गतिशील लक्ष्य चक्र पर निशाना सठिक हो,
उभरते हुए पौधों को अनुकूल हवामान मिले,

अतीत के पृष्ठों से निकलें नवीन सृजन करें,
निर्मल भोर की तरह सभी को वर्तमान मिले,

ज़रूरी नहीं राह में मिलें सायादार बरगद वन,
न रुके हम चाहे पथ में कांटे या उद्यान मिले,

गंतव्य हर हाल में मिलता है तलाश जारी रहे,
किसे ख़बर किस के अंदर लुप्त भगवान मिले,

न जाने कितनी परिभाषाओं में गुम है आदमी,
अंतर्मन से खोजें, संभवतः सच्चा इंसान मिले,
* *
- - शांतनु सान्याल

05 अप्रैल, 2023

बचपन न छीने कोई - -

अदृश्य सत्ता पर जा कर, रुक जाती है आह,
छोड़ जाते हैं लोग दिल के अंदर जलता दाह,

कौन थमा गया, इन मासूमों के हाथ पे पत्थर,
कलम किताब छोड़ ये कैसा है ज़हरीला डाह,

कौन सिखाता है इन को जनम से जुर्म बाज़ी,
कच्ची उम्र ही में कर जाता है ज़िन्दगी तबाह,
 
ये कैसी  रहगुज़र है, जहाँ इंसानियत है शून्य,
बस नफ़रत ही नफ़रत है, चारों तरफ बेपनाह,

सियासतदान  बनाते हैं, इन को विषाक्त प्यादा,
विष फैलने के बाद कोई भी नहीं सुनता कराह,

जीओ और जीने दो, से बढ़ कर कोई धर्म नहीं,
धुंध से निकल कर धुंध में ही खो जाती है राह,
* *
- - शांतनु सान्याल 

04 अप्रैल, 2023

नज़्म - - जीने का मज़ा

कुछ भी क़ायम कहाँ, ग़ैर यक़ीनी सूरतहाल, 

न फ़लक अपना, न ज़मीं अपनी, न ही
कोई बानफ़स चाहने वाला, बस 
दो पल के मरासिम, फिर 
तुम कहाँ और हम 
कहाँ, इस चाह
को न बांधो 
निगाहों 
में इस तरह कि लौट आये रूह ख़लाओं से -
बार बार, उम्र भर की तिश्नगी और 
सामने समंदर खारा, वो कहते 
हैं, ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा
है बहुत उलझा हुआ,
लेकिन क्या ये 
सच नहीं,
कि सब कुछ ग़र बिन कोशिश मिल जाये 
तो क्या बाक़ी रहे, जीने का मज़ा - -

- शांतनु सान्याल





03 अप्रैल, 2023

मजरूह जिस्म - -

ख़ाका ए ख़्वाब से इक पुराना राब्ता सा है,
ओंठों पे आ के वो नाम कुछ कांपता सा है,

सभी की नज़र, मुझ तक आ कर रुक गई,
चेहरे के अंदर, कोई और चेहरा छुपा सा है,

ग़ुबार आलूद शीशे का, कुछ भी क़सूर नहीं,
इल्ज़ाम को बदलने का इक फ़लसफ़ा सा है,

रीढ़ की हड्डी, हर किसी की सीधी नहीं होती,
बाहर से दिलेर, अंदर से वो ख़ौफ़ज़दा सा है,

कहने को शहर में है, इक गहरी हम आहंगी,
गली कूचों में कहीं अपनेपन का ख़ला सा है,

नज़र चुराने का फ़न वो बख़ूबी से जानता है,
उस के इर्दगिर्द आजकल इक मुहकमा सा है,

सलीब ए ज़ीस्त उठाए जा रहे हैं जाने किधर,
लापता है मंज़िल, हर सिम्त बस धुआं सा है,

तलवार की नोंक पर, यूँ तो चलते रहे उम्रभर,
इक तरफ खाई, दूसरे सिम्त इक कुआं सा है,

पीठ ओ पेट के दरमियां कुछ भी फ़ासला नहीं,
जिस्म के लिए टूटा छत भी, फ़लकनुमा सा है,
* *
- - शांतनु सान्याल  
 

 

02 अप्रैल, 2023

अंतिम बिंदु - -

कभी कभी जी चाहता है, पृथ्वी
के अंतिम छोर तक पहुँचे,
जहाँ मिलें समंदर
और आसमान,
उस नव
भोर
तक पहुँचे,

रूह की अथाह गहराइयों में है
अनगिनत चिराग़ों का
शहर, आलोक स्रोत
में बहते बहते
गहन आत्म
विभोर
तक पहुँचे,

अशेष ख़्वाहिशों में है कहीं,
तुम्हें परिपूर्ण पाने का
ठिकाना, देह प्राण
हो जाएं एकाकार
ऐसे महाग्रह
की ओर
तक पहुँचे,

अंतःकरण के अतल बिंदु
में है कहीं, सुधा कोष
का उद्गम, कंपित
अधर के संधि
स्थल से
हो कर
हृदय
कोर तक पहुँचे,

उस महा स्पर्श में है पवित्र
पुनर्जीवन का संजीवन
मंत्र छुपा, कंटक
वन से हो कर
प्रणयी मेघ
आख़िर
घनघोर तक पहुँचे,
* *
- - शांतनु सान्याल  
    

01 अप्रैल, 2023

अनदेखा फ़ासला - -

पल की ख़बर नहीं, और वो करते 
हैं अंतहीन वादा, कैसे कोई 
समझाए उन्हें, कि है 
इक लम्बा सा 
अनदेखा 
फ़ासला, ख़ुश्क ओंठ और जाम के 
दरमियां, बेहतर है, न करें 
ख़्वाहिश ज़रुरत से 
कहीं ज़ियादा, 
चेहरे से 
दिल की गहराई होती है ख़ुद  ब 
ख़ुद बयां, कोई चाहे जितना 
भी छुपाए अपना 
इरादा, हर 
तरफ़ 
बिछी हैं खुली शतरंज की बिसात,
कहीं जीत है तो कहीं मात,
हर दौर में लेकिन 
पहले मरता 
है ग़रीब 
प्यादा,
पल की ख़बर नहीं, और वो करते 
हैं अंतहीन वादा - - 
* * 
- शांतनु सान्याल

घड़ीसाज़ - -

मद्धम ही सही जल तरंग सा
है ज़िन्दगी का साज़,
हज़ार ग़म लिए
सीने में, न
बदले
जीने का अंदाज़,

ख़ुदा जाने क्यूं घेर लेते हैं तुम्हें,
उदासियों के साए, मुहोब्बत
के सफ़र में, हरेक
लम्हा है नया
आग़ाज़,

गुल खिले न खिले, मुख़ातिब
रहें दिल ए गुलज़ार,
आंधियों में भी
नहीं रूकती,
तितलियों
के परवाज़,

काश, हम समझ पाते, ख़ामोश
पत्थरों की ज़बान, दिल की
गहराइयों से पुकारें, लौट
आएगी आवाज़,

बहते समय के स्रोत होते हैं बहोत
ही अप्रत्याशित, दो काँटों के
दरमियां झूलता सा
रहता है घड़ीसाज़,
* *
- - शांतनु सान्याल

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