15 अप्रैल, 2023

दर्पण के नेपथ्य में - -

दर्पण के उस पार भी है एक अनछुई दुनिया,
बिंब से बाहर काश, कभी निकल पाते,
सभी नदियां आख़िर जा मिलती
हैं समुद्र की अथाह गहराइयों
में, सभी पक्षी लौट आते
हैं सांझ ढले अपने
नीड़ में, अंधेरे
के उस पार
कहीं
आबाद है उजालों की दुनिया काश, बिहान
तक यूँ ही साथ साथ चल पाते, बिंब से
बाहर काश, कभी निकल पाते |
सभी यात्राओं का अंत है
निश्चित, टहनियों से
जुड़े रहने का सुख
होता है क्षणिक,
जीर्ण पत्तों
को एक
दिन
गिरना है भूमि पर, सभी रात्रि का अंत होता
दिगंत रेखा के पार, कुछ भी नहीं यहां
चिरस्थायी, आरोह अवरोह का
खेल है सारा, काश, स्वर्ण
मोहर की तरह हम भी
शत प्रतिशत शुद्धता
में ढल पाते, बिंब
से बाहर काश,
कभी निकल
पाते |
* *
- - शांतनु सान्याल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past