कभी कभी जी चाहता है, पृथ्वी
के अंतिम छोर तक पहुँचे,
जहाँ मिलें समंदर
और आसमान,
उस नव
भोर
तक पहुँचे,
रूह की अथाह गहराइयों में है
अनगिनत चिराग़ों का
शहर, आलोक स्रोत
में बहते बहते
गहन आत्म
विभोर
तक पहुँचे,
अशेष ख़्वाहिशों में है कहीं,
तुम्हें परिपूर्ण पाने का
ठिकाना, देह प्राण
हो जाएं एकाकार
ऐसे महाग्रह
की ओर
तक पहुँचे,
अंतःकरण के अतल बिंदु
में है कहीं, सुधा कोष
का उद्गम, कंपित
अधर के संधि
स्थल से
हो कर
हृदय
कोर तक पहुँचे,
उस महा स्पर्श में है पवित्र
पुनर्जीवन का संजीवन
मंत्र छुपा, कंटक
वन से हो कर
प्रणयी मेघ
आख़िर
घनघोर तक पहुँचे,
* *
- - शांतनु सान्याल
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