ख़ाका ए ख़्वाब से इक पुराना राब्ता सा है,
ओंठों पे आ के वो नाम कुछ कांपता सा है,
सभी की नज़र, मुझ तक आ कर रुक गई,
चेहरे के अंदर, कोई और चेहरा छुपा सा है,
ग़ुबार आलूद शीशे का, कुछ भी क़सूर नहीं,
इल्ज़ाम को बदलने का इक फ़लसफ़ा सा है,
रीढ़ की हड्डी, हर किसी की सीधी नहीं होती,
बाहर से दिलेर, अंदर से वो ख़ौफ़ज़दा सा है,
कहने को शहर में है, इक गहरी हम आहंगी,
गली कूचों में कहीं अपनेपन का ख़ला सा है,
नज़र चुराने का फ़न वो बख़ूबी से जानता है,
उस के इर्दगिर्द आजकल इक मुहकमा सा है,
सलीब ए ज़ीस्त उठाए जा रहे हैं जाने किधर,
लापता है मंज़िल, हर सिम्त बस धुआं सा है,
तलवार की नोंक पर, यूँ तो चलते रहे उम्रभर,
इक तरफ खाई, दूसरे सिम्त इक कुआं सा है,
पीठ ओ पेट के दरमियां कुछ भी फ़ासला नहीं,
जिस्म के लिए टूटा छत भी, फ़लकनुमा सा है,
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- - शांतनु सान्याल
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