न बुझाओ शमअ, कि अभी बहोत रात है बाक़ी, अभी अभी खुल के महके हैं गुल ए नज़दीकियां,
पहलू से न दूर जाओ ज़रा दिल की बात है बाक़ी,
सुबह की आरज़ू है बेमानी, कल का यक़ीं न कर,
न उतरे ये ख़ुमार अभी इश्क़ की सौगात है बाक़ी,
ज़िंदगी ओ मौत के बीच ख़ुद को यूँ न उलझाओ,
मिलें रूह से रूह कुछ जीने के वजूहात है बाक़ी,
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- - शांतनु सान्याल
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30-04-2023) को "आम हो गये खास" (चर्चा अंक 4660) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंबहुत खूब।
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
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