अंततः सभी लोग लौट आते हैं, अपने ही खंडहर में,
भूल ठिकाने की चिट्ठी लौट आती है उसी डाकघर में,
ध्वंस स्तूप में पड़े रहते हैं, बेतरतीब से वर्ण परिचय,
हम खोजते हैं, गुमशुदा शब्दों को उजड़े हुए शहर में,
इक रक्तिम गुलाब की तरह, दरवाज़े में कोई होता है,
यादों के साए हम करते हैं, तलाश समय के भंवर में,
आख़िरकार लौट आते हैं उसी श्रृंखलित खूंटी के पास,
मीठी सी टीस छुपी रहती है, किसी को खोने के डर में,
अदृश्य स्पर्श, कालांतर में नीलाभ तितली बन जाते हैं,
कुछ आवेग उड़ान लेते ही, डूब जाते हैं बीच समंदर में,
जीवन के संग्रहालय में, बंद रह जाते हैं असंख्य संदूक,
दरअसल, ख़ाली हाथ ही चलना है इस अज्ञात सफ़र में,
* *
- - शांतनु सान्याल
30 अप्रैल, 2023
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