कुछ भी क़ायम कहाँ, ग़ैर यक़ीनी सूरतहाल,
न फ़लक अपना, न ज़मीं अपनी, न ही
कोई बानफ़स चाहने वाला, बस
दो पल के मरासिम, फिर
तुम कहाँ और हम
कहाँ, इस चाह
को न बांधो
निगाहों
में इस तरह कि लौट आये रूह ख़लाओं से -
बार बार, उम्र भर की तिश्नगी और
सामने समंदर खारा, वो कहते
हैं, ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा
है बहुत उलझा हुआ,
लेकिन क्या ये
सच नहीं,
कि सब कुछ ग़र बिन कोशिश मिल जाये
तो क्या बाक़ी रहे, जीने का मज़ा - -
- शांतनु सान्याल
यही तिलस्म तो बताता है कि यह जिंदगी है।
जवाब देंहटाएंthanks dear for extraordinary comment
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 5 अप्रैल 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअथ स्वागतम शुभ स्वागतम
आपका असीम आभार आदरणीय ।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (०६-०४-२०२३) को 'बरकत'(चर्चा अंक-४६५३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपका असीम आभार आदरणीय ।
हटाएंआपका असीम आभार आदरणीय ।
हटाएं