30 दिसंबर, 2023

मीठा भरम - -

कुछ अश्क ए मोती बिखरे हुए सिरहाने से मिले,

आईना था लाजवाब मुद्दतों बाद दीवाने से मिले,


अक्स ए जुनूं था या अहद ए बर्बादी मालूम नहीं,
रूह से उतर कर शम'अ आख़िर परवाने से मिले,

आईन ए ज़माना, संगसारी से ज़्यादा क्या करेगा,
हज़ार पर्दों से बाहर, न जाने किस बहाने से मिले,

आसां नहीं है दिलों का एक दूजे में तहलील होना,
रहने दो मीठा भरम कि दिल हाथ मिलाने से मिले,

हर सिम्त है ख़ुद को राजा कहलवाने का मुक़ाबला
हर्ज़ क्या ताज ओ तख़्त झूठी क़सम खाने से मिले,

नक़्श ए दुनिया में उसी की तूती बोलती है हर तरफ़
कौन देखता है कि ओहदा ए ख़ास बरगलाने से मिले,
- - शांतनु सान्याल

29 दिसंबर, 2023

ख़्वाबों की ताबीर - -

नक़्श ए जीस्त मेरा हमेशा ही बेतरतीब रहा
बारहा भुलाया जिसे बारहा वो नज़दीक रहा

ज़ीनत ए फ़लक़ में यूँ तो हैं सितारे बेशुमार
अमावस में भी वो अंदर तक मेरे शरीक रहा

ख़्वाबों के घर, बिखरे ताश के पत्तों की तरह
कभी ख़ुशी बेशुमार कभी उजड़ा नसीब रहा

किसी और का था वो गुमशुदा कोई ख़ज़ाना
उम्र भर वो तोहफ़ा दिल के बहुत क़रीब रहा

मोतियों का सफ़र रहा साहिल से ताज तक
रेत की दुनिया में इक तन्हा बेजान सीप रहा

बहुत कठिन है जीवन में ख़्वाबों की ताबीर
दास्तां ए इश्क़ दिलकश के संग अजीब रहा
- - शांतनु सान्याल

27 दिसंबर, 2023

रात की उतराई - -

जराजीर्ण देह के साथ उतरती है रात, घाट की सीढ़ियों से सधे पांव, स्थिर नदी की गहराइयों में, बूढ़ा पीपल का पेड़ 
अंधेरे में तलाशता है एक मुश्त 
रौशनी, एकांत की गहन
तन्हाइयों में । न जाने
कितने ही रहस्य 
खुलने से
पहले
ही
दफ़न हो जाते हैं सीने के अंदर, सूख जाती
हैं भावनाएं अनाम मरूबेल की तरह, 
वक़्त अपना महसूल, वसूल कर
जाता है नक़ली मेघ की 
परछाइयों में, बूढ़ा
पीपल का पेड़ 
अंधेरे में 
तलाशता है एक मुश्त रौशनी, एकांत की गहन तन्हाइयों में । फ़र्श में बिखरे पड़े
रहते हैं प्रेम - घृणा के श्वेत - श्याम 
मोहरें, कुछ कांच के लिबास,
खण्डित मोह के रेशमी
धागे, उतरे हुए
मुखौटे, और
निर्वस्त्र
संदली काया, निमज्जित सूर्य तब चाहता है रात की क़ैद से मुक्त होना, सुबह हम
तलाशते हैं ज़िन्दगी को रहस्यमयी
कहानियों में, जराजीर्ण देह के 
साथ उतरती है रात, घाट 
की सीढ़ियों से सधे 
पांव, स्थिर नदी 
की गहराइयों 
में ।
- - शांतनु सान्याल

 

26 दिसंबर, 2023

मूकाभिनय

सब कुछ ढक देती है शब्दहीन मुस्कुराहट,
भीगे पलकों में उभर आते हैं असंख्य
जल कण, स्थिर अपनी जगह
हिमांक बिंदु की ओर
अग्रसर, बहुत
कुछ न
चाह
कर भी हलक़ के पार उतारने का नाम ही
है ज़िन्दगी, कोई परछाई रौंद जाती
है वजूद को बार बार बेरहमी के
साथ, फिर भी हम नहीं
मरते, जी उठते हैं
बार बार, सिर्फ़
याद रहती
है दूर जाती हुई ख़ौफ़नाक सरसराहट, सब
कुछ ढक देती है शब्दहीन मुस्कुराहट।
दरअसल हम ज़रूरत से अधिक
प्रत्याशा लिए बैठे होते हैं
जबकि वक़्त की तेज़
रफ़्तार में छूट
जाते हैं
सभी
परिचित चेहरे, जनशून्य स्टेशन में तब - -
हमारे सिवा कोई नहीं होता, कोहरे
में ढके होते हैं जंगल - पहाड़,
नदी झरने, हदे नज़र
गुम होती हुईं रेल
की बेजान
पटरियां,
फिर
भी हम लौट आते हैं सुबह सवेरे उसी जगह
जहाँ मद्धम ही सही, लेकिन आती है
जीने की आहट, सब कुछ ढक
देती है शब्दहीन
मुस्कुराहट।
* *
- - शांतनु सान्याल

25 दिसंबर, 2023

अपरिभाषित मीठापन - -

मध्य रात के साथ शब्द संधान, समुद्र तट पर
उतरती है भीनी भीनी ख़ुश्बू लिए चाँदनी,
काले चट्टानों को फाँदता हुआ जीवन
छूना चाहता है परियों का शुभ्र
परिधान, इक सरसराहट
के साथ खुलते हैं
ख़्वाबों के बंद
दरवाज़े,
निःशब्द कोई रख जाता है ओस में भीगा हुआ
गुलाब, उन्मुक्त देह करता है गहन स्नान,
जीवन छूना चाहता है परियों का शुभ्र
परिधान। कभी कभी हमारे मध्य
ढह जाते हैं सभी सेतु बंध,
प्रणय प्रवाह में बह
जाते हैं सभी
प्रतिबंध,
और
कभी जाग उठता है अन्तर्निहित अभिमान, -
जीवन छूना चाहता है परियों का शुभ्र
परिधान। कुछ झिलमिलाते रेत
कण सोख लेते हैं जीवन
का खारापन, कुछ
आर्द्र अधर में
चिपके रहते
हैं कुछ
अपरिभाषित मीठापन, आँखों की गहराइयों
से गुज़र कर, हृदय छोर से हो कर, जारी
रहता है रूह तक शब्द विहीन महा
अभियान, जीवन छूना चाहता
है परियों का शुभ्र
परिधान।।
- - शांतनु सान्याल 
   

21 दिसंबर, 2023

ख़ुद से बाहर - -

इक बूंद पे ठहरी हुई ये ज़िंदगानी है,

बिलाउन्वान, सांसों की ये कहानी है,  

जज़्बात रहें दिल में, ख़ामोश दफ़न

मुस्कुराता चेहरा न आंखों में पानी है,

ज़िंदगी, ख़ुद तक महदूद नहीं होती 

फ़र्ज़ निभाना ही इंसां की निशानी है,

आईने से बेवजह है, हमें बदगुमानी

किरदार हमारा अक्स ए मेहरबानी है,

दिलो जाँ पे है क़ाबिज़ इश्क़ उनका

ये जज़्बात लेकिन मौजों की रवानी है,

कांच का है आशियाना, ग़ुरूर कैसा

पलभर की ख़ुशी ज़रा सी शादमानी है,

- - शांतनु सान्याल



 



20 दिसंबर, 2023

हाल ए दिल याद आया - -

बहुत कुछ कहना था उसके जाने के बा'द हाल ए दिल याद आया,

जब मझधार में डूबी चाहतों की कश्ती तब संग ए साहिल याद आया,

किस ने किस को दर किनार किया अब सोचने से फ़ायदा कुछ नहीं,

शीशा ए ख़्वाब टूटते ही, हद ए नज़र वो गुज़िश्ता कल याद आया,

वो मुहोब्बत जो रूह की गहराइयों तक पहुंचाए अमन की ने'मत,

आइने में अक्स लगे धुंधला सा तब ज़िंदगी का हासिल याद आया,

 - - शांतनु सान्याल


19 दिसंबर, 2023

ख़ामोशी मुसलसल - -

 

ज़रूरी नहीं हर इक मोड़ पे मनचाहा रहनुमा मिले,
मतलूब चाहतों के ख़ातिर धरती ओ आसमां मिले,

उठ गए रात ढले सितारों के रंगीन झिलमिलाते
ख़ेमे, कोहरे में बहोत मुश्किल है, गुज़रा हुआ
कारवां मिले, 

शहर वीरान है, दिल का सराय भी
उजड़ा उजड़ा सा, ज़रूरी नहीं हर किसी को दिलकश
कोई गुलिस्तां मिले,

ताउम्र भटकते रहे हम समंदर
के किनारे किनारे दूर तक, न कोई पता - ठिकाना
न ही रेत पर क़दमों के निशां मिले, 

ज़रूरी नहीं हर
इक मोड़ पे मनचाहा रहनुमा मिले ।
- - शांतनु सान्याल


18 दिसंबर, 2023

कहीं दूर निकल जाएं - -

कुछ इस तरह से रूह को छू लो 

कि ज़िन्दगी तासीर ए संदल हो जाए,

बियाबां के सुलगते राहों में इक दस्त

ए शफ़्फ़क़त भरा आँचल हो जाए,

इक अधूरी लकीर ए तिश्नगी, जो 

गुज़रती है दिल की राहों से कहीं दूर,

ग़र संग चलो हमराही बन कर तो

ज़िन्दगी का सफ़र मुक्कमल हो जाए,

खोजता हूँ नाहक़ अपने आसपास

बिखरे हुए नक़ली मोतियों की चमक,

ख़ुद के अंदर झांकते ही तमाम 

उलझनें अपने आप ओझल हो जाए,

रेत पे लिखे इबारतों की तरह इक

दिन मिट जाएंगे सभी रिश्तों के बेल,

लोग पुकारते रहें जिस्म चुपचाप 

उफ़क़ के पार दूर कहीं निकल जाए ।

- - शांतनु सान्याल

 




17 दिसंबर, 2023

मन्नतों का दरख़्त - -

आरती से घुमाई गई हथेली माथे पर आ रुक
जाए, रोज़ रात उतरना चाहता हूँ दिल
की गहराइयों में, क़दम बढ़ाते
ही कोहरे में चाँद है कि
छुप जाए, भीगे
पन्ने में
तलाशता हूँ जल - रंग शब्दों की अबूझ
पहेलियाँ, कुछ ख़्वाब रात के गहन
अंधेरे में टिमटिमाते रहे, कुछ
अपने आप ही बुझ जाए,
आरती से घुमाई
गई हथेली
माथे
पर आ रुक जाए । निःशब्द गिरती रही
रात भर ओस की बूंदें, इक
अजीब सी ख़ामोशी रही
दरमियां अपने, इक
गंध कोष जिस्म
के बहोत
अंदर
खुल के बिखरता रहा रात भर, मन्नतों
का दरख़्त काश ! दहकते सीने में
कुछ और झुक जाए, आरती
से घुमाई गई हथेली
माथे पर आ
रुक जाए ।
- - शांतनु सान्याल

16 दिसंबर, 2023

किसी मोड़ पे - -

 

न जाने कितने मरहलों पे हम जीत के हार गए,
मेंहदी की तरह सूनी हथेली की उम्र संवार गए,

अंधेरों से है जन्मों की निस्बत जलते रहे बूंद बूंद,
कुछ भी न था हमारा लिहाज़ा सब कुछ वार गए,

इक दरिया की तरह बहती रही ज़िंदगी रफ़्ता रफ़्ता,
डूबते उभरते सांसों के, इस पार कभी उस पार गए,

वक़्त के साथ, ख़ौफ़ ए मौत भी चला जाता है,
हज़ारों चाहतें थी, हज़ार बार ख़ुद को मार गए,

न जाने कितने मरहलों पे हम जीत के हार गए ।

- - शांतनु सान्याल

13 दिसंबर, 2023

कुछ तो था दरमियां अपने - -

 

नजूमी ने ज़िन्दगी भर, कई ख़्वाब दिखाए,

शदीद प्यास के आगे, गहरा सराब दिखाए,

सीलन भरे कमरे में तन्हा दीया बुझता रहा,

शबनमी बूंदों में, अक्स ए माहताब दिखाए,

जब कभी हम ने इक ख़ुशगवार लम्हा चाहा,

मज़हबी ठेकेदार ने पोशीदा अज़ाब दिखाए,

हर रोज़ ज़िन्दगी ने नई उम्मीद से दस्तक दी,

रात फिर पुराने बोतल में नया शराब दिखाए,

कुछ तुम थे ज़रा बरहम कुछ हम गुमसुम से,

फिर भी वक़्त ने इश्क़ को लाजवाब दिखाए,

- - शांतनु सान्याल

11 दिसंबर, 2023

कोई राज़दां नहीं - -

कहने को लोग मिलते रहे लेकिन कोई दर्द शनासा न मिला,
जिसे समझे राज़दां अपना वही आख़िर में अजनबी निकला,

अजीब सी वो लफ़्ज़ों की पहेली उलझा गई ख़ुलूस ए ज़िन्दगी,
नुक़्ता ए आग़ाज़ पे लौट कर आता रहा वो वहम ए सिलसिला,

अक़ीदतों की कमी ज़रा भी न थी जाने क्यूँ वो अनसुना ही रहा,
बेमानी रही उम्र भर की कोशिशें वो पत्थर था ज़रा भी न हिला,

कहने को लोग मिलते रहे, लेकिन कोई दर्द शनासा न मिला ।

- - शांतनु सान्याल






09 दिसंबर, 2023

कोई शिकायत नहीं - -

उतर चला है चेहरे से रंग ओ रोगन,
अब आईने से शिकायत भी न रही,

न कशिश बाक़ी, न कोई बेक़रारी, अब
पहली सी वो मुहोब्बत भी न रही,

वो तमाम सब्ज़ पत्तों का ठिकाना पूछता
है पतझर का एक तन्हा मुसाफ़िर,

बहुत मुश्किल है उसके दर तक पहुंचना
दरअसल अब वो सदाक़त भी न रही,

किस पे करें यक़ीन, हर एक मोड़ पर हैं
हज़ार स्वांगों का बढ़ता हुआ जुलूस,
मन्नतों के पत्थर दरख़्त पे हैं
बेजान से लटके दिलों में
वो सच्ची नियत भी
न रही, उतर
चला है
चेहरे से रंग ओ रोगन, अब आईने से
शिकायत भी न रही ।

- - शांतनु सान्याल

06 दिसंबर, 2023

ख़मोशी के उस पार - -

 

सूरज डूबते ही, जाग जाती है वहशी रात,

बस दिन ही गुज़रा, जस के तस हैं हालात,


लुकाछुपी का खेल ही तो है जीने का फ़न,

ख़मोशी के उस पार है पुरअसरार की बात,


शिकारी की निगाह है नुक़्ता ए मक़सद पर,

आसां नहीं पाना, ओझल जालों से निजात,


शीशा टूटे या जिस्म आवाज़ जाती है बिखर,

अंदरुनी ज़ख्मों को, भर नहीं पाती बरसात,


धुंधली सी दूरी रहती है समानांतर चलते भी,

कहने को चलते रहे, उम्र भर हम साथ साथ,

- शांतनु सान्याल

04 दिसंबर, 2023

तलाश - -

बहुत कुछ हो कर भी कुछ भी न था हमारे
दरमियां, चंद लफ़्ज़ों का था अफ़साना,
उम्र भर खोजते रहे जिसका उन्वान,
दूर रह कर भी बहुत गहरी थीं
दिल की नज़दीकियां ।
हमने निभाई है हर
एक मोड़ पे
ज़िन्दगी
से हमआहंगी, ये दिगर बात है कि हर
क़दम में पे पाई है नाकामी, कोई
तिलस्म सा है उसकी आंख
की गहराई में, मुझे
मरने नहीं देतीं
उस ख़ामोश
चेहरे की
पहेलियां, बहुत  कुछ हो कर भी कुछ
भी न था हमारे
दरमियां ।

- शांतनु सान्याल


बिन शीशे का आईना - -

 

इक रहगुज़र जो अपनी जगह है मुस्तकिम
कहने को उम्र ए क़ाफ़िला कब का गुज़र
चुका, ढूंढता हूँ अक्स अपना बिन
शीशे के आइने में, अब मरहम
ए रौशनी का क्या करूं जब
गहरा दर्द वक़्त के साथ
कब का भर चुका,
कहने को उम्र
ए क़ाफ़िला
कब का
गुज़र
चुका ।
धुँधभरे पर्दों के पार कहीं बहती है वादी
ए उम्मीद की नदी, आज भी रात
ढले खिलते हैं कुछ बेनामी
फूल, यूँ तो मुद्दत हुए
अहाते  वाला
मोगरे का
पौधा
मर चुका, कहने को उम्र ए क़ाफ़िला
कब का गुज़र चुका ।

- शांतनु सान्याल

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