सूरज डूबते ही, जाग जाती है वहशी रात,
बस दिन ही गुज़रा, जस के तस हैं हालात,
लुकाछुपी का खेल ही तो है जीने का फ़न,
ख़मोशी के उस पार है पुरअसरार की बात,
शिकारी की निगाह है नुक़्ता ए मक़सद पर,
आसां नहीं पाना, ओझल जालों से निजात,
शीशा टूटे या जिस्म आवाज़ जाती है बिखर,
अंदरुनी ज़ख्मों को, भर नहीं पाती बरसात,
धुंधली सी दूरी रहती है समानांतर चलते भी,
कहने को चलते रहे, उम्र भर हम साथ साथ,
- शांतनु सान्याल
वाह, दिल को छू लेनी वाला सृजन।
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
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