04 दिसंबर, 2023

बिन शीशे का आईना - -

 

इक रहगुज़र जो अपनी जगह है मुस्तकिम
कहने को उम्र ए क़ाफ़िला कब का गुज़र
चुका, ढूंढता हूँ अक्स अपना बिन
शीशे के आइने में, अब मरहम
ए रौशनी का क्या करूं जब
गहरा दर्द वक़्त के साथ
कब का भर चुका,
कहने को उम्र
ए क़ाफ़िला
कब का
गुज़र
चुका ।
धुँधभरे पर्दों के पार कहीं बहती है वादी
ए उम्मीद की नदी, आज भी रात
ढले खिलते हैं कुछ बेनामी
फूल, यूँ तो मुद्दत हुए
अहाते  वाला
मोगरे का
पौधा
मर चुका, कहने को उम्र ए क़ाफ़िला
कब का गुज़र चुका ।

- शांतनु सान्याल

8 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन रचना सर।
    सुंदर भावपूर्ण।
    सादर।
    -----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ५ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. धुँधभरे पर्दों के पार कहीं बहती है वादी ए उम्मीद की नदी, आज भी रात ढले

    खिलते हैं कुछ बेनामी फूल,
    धुँध तो छँट जयेगी एक दिन , उम्मीद की नदी है तो सम्भव है सम्भावना भी रहेगी ।
    बेहतरीन सृजन
    वाह!!!

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  3. वक्त के साथ उम्र अपना रिश्ता तो निभाती ही है।
    जीवन संदर्भ पर गहरी रचना।

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