इक रहगुज़र जो अपनी जगह है मुस्तकिम
कहने को उम्र ए क़ाफ़िला कब का गुज़र
चुका, ढूंढता हूँ अक्स अपना बिन
शीशे के आइने में, अब मरहम
ए रौशनी का क्या करूं जब
गहरा दर्द वक़्त के साथ
कब का भर चुका,
कहने को उम्र
ए क़ाफ़िला
कब का
गुज़र
चुका ।
धुँधभरे पर्दों के पार कहीं बहती है वादी
ए उम्मीद की नदी, आज भी रात
ढले खिलते हैं कुछ बेनामी
फूल, यूँ तो मुद्दत हुए
अहाते वाला
मोगरे का
पौधा
मर चुका, कहने को उम्र ए क़ाफ़िला
कब का गुज़र चुका ।
- शांतनु सान्याल
बेहतरीन रचना सर।
जवाब देंहटाएंसुंदर भावपूर्ण।
सादर।
-----
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ५ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आपका हार्दिक आभार।
हटाएंधुँधभरे पर्दों के पार कहीं बहती है वादी ए उम्मीद की नदी, आज भी रात ढले
जवाब देंहटाएंखिलते हैं कुछ बेनामी फूल,
धुँध तो छँट जयेगी एक दिन , उम्मीद की नदी है तो सम्भव है सम्भावना भी रहेगी ।
बेहतरीन सृजन
वाह!!!
आपका हार्दिक आभार।
हटाएंवक्त के साथ उम्र अपना रिश्ता तो निभाती ही है।
जवाब देंहटाएंजीवन संदर्भ पर गहरी रचना।
आपका हार्दिक आभार।
हटाएंवाह!शांतनु जी ,बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
हटाएं