आरती से घुमाई गई हथेली माथे पर आ रुक
जाए, रोज़ रात उतरना चाहता हूँ दिल
की गहराइयों में, क़दम बढ़ाते
ही कोहरे में चाँद है कि
छुप जाए, भीगे
पन्ने में
तलाशता हूँ जल - रंग शब्दों की अबूझ
पहेलियाँ, कुछ ख़्वाब रात के गहन
अंधेरे में टिमटिमाते रहे, कुछ
अपने आप ही बुझ जाए,
आरती से घुमाई
गई हथेली
माथे
पर आ रुक जाए । निःशब्द गिरती रही
रात भर ओस की बूंदें, इक
अजीब सी ख़ामोशी रही
दरमियां अपने, इक
गंध कोष जिस्म
के बहोत
अंदर
खुल के बिखरता रहा रात भर, मन्नतों
का दरख़्त काश ! दहकते सीने में
कुछ और झुक जाए, आरती
से घुमाई गई हथेली
माथे पर आ
रुक जाए ।
- - शांतनु सान्याल
बहुत खूब सर
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
हटाएंमर्मछूती बेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति सर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १९ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आपका हार्दिक आभार।
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
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