कहने को लोग मिलते रहे लेकिन कोई दर्द शनासा न मिला,
जिसे समझे राज़दां अपना वही आख़िर में अजनबी निकला,
अजीब सी वो लफ़्ज़ों की पहेली उलझा गई ख़ुलूस ए ज़िन्दगी,
नुक़्ता ए आग़ाज़ पे लौट कर आता रहा वो वहम ए सिलसिला,
अक़ीदतों की कमी ज़रा भी न थी जाने क्यूँ वो अनसुना ही रहा,
बेमानी रही उम्र भर की कोशिशें वो पत्थर था ज़रा भी न हिला,
कहने को लोग मिलते रहे, लेकिन कोई दर्द शनासा न मिला ।
- - शांतनु सान्याल
वाह
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
हटाएंवाह! क्या बात है !
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
हटाएंवह.... बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
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