न जाने कितने मरहलों पे हम जीत के हार गए,
मेंहदी की तरह सूनी हथेली की उम्र संवार गए,
अंधेरों से है जन्मों की निस्बत जलते रहे बूंद बूंद,
कुछ भी न था हमारा लिहाज़ा सब कुछ वार गए,
इक दरिया की तरह बहती रही ज़िंदगी रफ़्ता रफ़्ता,
डूबते उभरते सांसों के, इस पार कभी उस पार गए,
वक़्त के साथ, ख़ौफ़ ए मौत भी चला जाता है,
हज़ारों चाहतें थी, हज़ार बार ख़ुद को मार गए,
न जाने कितने मरहलों पे हम जीत के हार गए ।
- - शांतनु सान्याल
बहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
हटाएंबहुत खूब सर!
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएं