28 अप्रैल, 2024

स्वीकारोक्ति - -

उम्र भर देखा है आईना ताहम
ए'तराफ़ कर न सके,
गहराइयों तक हैं धुंध दिल अपना साफ़ कर न सके,

दोहरे म'यार की सियासत है मीर ए कारवां के अंदर,
फिर भी वो बेदार ज़मीर को मेरे ख़िलाफ़ कर न सके,

दर्दे मुहोब्बत अपनी जगह ज़िंदगी का सच एक तरफ़,
जीने की सज़ा ले कर ख़ुद को कभी माफ़ कर न सके,
- - शांतनु सान्याल

26 अप्रैल, 2024

माया डोरी - -

देखता हूँ पारदर्शी इत्रदान के आर पार,

अनगिनत पुष्पों का अंतहीन हाहाकार,

असीम प्रणय को देना होता है बलिदान,
सजल आँख पर उष्ण बूंदों का वंदनवार,

समय के संग ढलना ही है जीवन सारांश,
बहुत मुश्किल है चलना स्वप्नों के अनुसार,

दो स्तम्भ के मध्य तनी रहती है माया डोरी,
टूटने पर, किसी को नहीं कोई भी सरोकार,
- - शांतनु सान्याल

बिखरे बिखरे अहसास - -

कुछ याद की पंखुडियां है मौजूद अभी तक टूटे गुलदान के तहत,

बिखरे बिखरे अहसास, पिघलते मोम की तरह, बूंद बूंद रिसते हुए
पलकों में अश्क थमें हों जैसे आबसार कोई बियाबाँ के तहत,

जाहिर न हो आम, वो इक सुलहनामा था, भूल जाने का अहद
मुद्दतों से जिसे सजा रखा है, सुलगते दिल-ऐ-अरमाँ के तहत ,

वो शमा जो बुझ कर है रौशन, हज़ार शम्स के बराबर
कोई खुशबू-ऐ-हयात हो जैसे, बिखरा ज़मीं ओ आसमां के तहत,

कोई तो होगा जहाँ में, जिसे मालूम हो उसका ठिकाना
सहरा सहरा, वादी वादी ,मंज़र आये गए उम्र-ऐ- रवां के तहत,

कभी मंदिर, कभी मस्जिद, हर शै पे लिखा पाया उसी का नाम
इक प्यास, इक आश दबी हो जैसे, हर इबारत-ऐ-बयां के तहत,
-- शांतनु सान्याल

24 अप्रैल, 2024

बेवजह ही - -

आख़िर मिलें तो किस से, जो भी मिले तो पूछे

मिलने की वजह, बस इसी एक बिंदु पर
आ कर मैं लौट आता हूँ अपने अंदर,
और खोजता हूँ सूखी नदी का
गुमशुदा स्रोत, वैसे दोनों
किनारे हैं मुद्दतों से
यथावत अपनी
जगह,
आख़िर मिलें तो किस से, जो भी मिले तो पूछे
मिलने की वजह । पलटता हूँ मैं आधी रात
आत्मीयता की किताब, सूखे पंखुड़ियों
के संग झर चली हैं शब्दों की नाज़ुक
पत्तियां, अल्बम के पृष्ठों से आज
भी उठ रहे हैं अनाम ख़ुश्बू !
उभर चले हैं धीरे धीरे
देह कोशिकाओं
में अदृश्य
स्पर्श
की उष्णता, ज़िन्दगी उभर रही है सतह दर सतह,
आख़िर मिलें तो किस से, जो भी मिले तो पूछे
मिलने की वजह ।
- - शांतनु सान्याल

23 अप्रैल, 2024

कोहरे में कहीं - -

तर्क ए मरासिम के अफ़साने थे बेशुमार,
शबनमी पलकों के सिवाय सब थे बेकार,

इक लकीर जो उफ़क़ में कहीं खो सी गई,
नई सुबह का हर शख़्स होता है तलबगार,

मुसलसल मर के जी उठना ही है ज़िन्दगी,
उभरने की चाह नहीं रोक सकती मंझधार,

ख़्वाब की घड़ी रोक रखती है उम्र के कांटे,
ये सही है कि रुकती नहीं वक़्त की रफ़्तार,

वही शाही रस्ता वही शहर भर की रौशनाई,
लामौजूद हूँ ताहम सज चले हैं मीनाबाज़ार,

कुछ चेहरों को नहीं मिलती वाजिब पहचान,
घने धुंध की वादियों में छुपे होते हैं आबशार,
- - शांतनु सान्याल

21 अप्रैल, 2024

वो नहीं लौटे - -

चारों तरफ असंख्य चेहरे फिर भी शून्यता दूर

तक, हर कोई बढ़ चला है अनजान सफ़र
में, हाथों में थामे हुए अनेक रहस्यमयी
तख्तियां, न जाने कौन है जो उन्हें
हाँक कर ले जा रहा है सुदूर
मिथक देश की ओर,
जहां बसते हैं
देवदूत,
उड़ती हैं महाकाय रंगीन परों की तितलियाँ, हर
कोई बढ़ चला है अनजान सफ़र में, हाथों
में थामे हुए अनेक रहस्यमयी तख्तियां ।
वो सभी चेहरे हैं भाषा विहीन, मूक
कदाचित बधिर भी, उनकी
आँखे हैं पथराई सी,
मशीन मानव की
तरह वो बढ़े
जा रहे हैं
नंगे
पांव ओंठों में लिए हुए शताब्दियों की अनबुझ
प्यास, शायद उन्हें है कल्प सरोवर की
तलाश, जहां पहुंच कर मिल जाए
जीवन को शाप मुक्ति, लुप्त
हो जाएं सभी चेहरे से
असमय की झुर्रियां,
हर कोई बढ़
चला है
अनजान सफ़र में, हाथों में थामे हुए अनेक
रहस्यमयी तख्तियां ।
- - शांतनु सान्याल

17 अप्रैल, 2024

समाधिस्थ अनुराग - -

तमाम आलोक स्रोत बुझ जाते हैं अपने आप,

जब अस्तित्व से कोई निकटस्थ तारा टूट
जाता है, महाशून्य में रह जाता है
केवल अनंत निस्तब्धता का
साम्राज्य, दरअसल,
अबूझ जीवन
विलम्ब से
जान
पाता है हृदय की मौन भाषा, कुछ कविताएं
अमूल्य अंगूठी की तरह खो जाती हैं
समय के गर्त में, जिसे उम्र भर
हम खोजते रह जाते हैं बस
स्मृति कुंज में पड़े रहते हैं
कुछ टूटे हुए अक्षर के
कंकाल, कोहरे में
भटकती रह
जाती है
प्रणय
आत्मा, समाधिस्थ हो जाती हैं देह की दुनिया,
पत्थरों पर पड़ा रह जाता है फूलों का
स्तवक निष्प्राण सा गंध विहीन ।
- - शांतनु सान्याल

13 अप्रैल, 2024

अदृश्य किनारा - -

परछाई बढ़ चली है, सुबह का मंजर न रहा,

हद ए निगाह, अब साहिल ए समंदर न रहा,

ये सच है कि, मुहोब्बत की कोई इंतहा नहीं,
वो जुनून ए इश्क़ अब दिलों के अंदर न रहा,

चेहरों पे हैं चस्पां, मुख़्तलिफ़ रंगों के मुखौटे,
जो सिखाए जीने का फ़न वो क़लन्दर न रहा,

ओढ़ कर ख़ुत्बा ए पैरहन हर मोड़ पे रहज़नी,
दिलों को जीत सके ऐसा कोई सिकंदर न रहा,

अजीब दौर है कि हज़ार ख़ेमों में बंट गए इंसां,
किस किनारे उतरें, घाट पे हक़ गो लंगर न रहा,
- शांतनु सान्याल

10 अप्रैल, 2024

स्वर्ण मीन - -

छूना चाहता हूं उसे समीप से, स्वर्ण मीन सा वो

डूबता चला जाता है गहन अंधकार में, उलंग
देह बढ़ता जाता है उसकी ओर पूर्णग्रासी
चंद्र की तरह, अथाह जलराशि के तल
को ढूंढता हूँ मैं मायावी इस संसार
में, स्वर्ण मीन सा वो डूबता
चला जाता है गहन
अंधकार में ।
हरित नील
रंगों के
जल
बिंदु खेलते हैं उन्माद लहरों के साथ, जुगनुओं
का नृत्य चलता है रात भर, अद्भुत एक
आभास जीवित रखती है मुझे उस
गहराई में प्राणवायु विहीन,
शेष प्रहर में वृष्टि भिगो
देती है अंदर तक मरु
धरा को, उर्वर
भावनाओं
में पुनः
खिल
उठते हैं नन्हें नन्हें अनाम फूल, जीने की अदम्य
उत्कंठा अशेष रहती है कृष्ण मृग के चीत्कार में,
स्वर्ण मीन सा वो डूबता चला जाता
है गहन अंधकार में ।
- - शांतनु सान्याल

07 अप्रैल, 2024

मर्म कथा - -

मुझे ज्ञात है विलीन उपरांत की मर्म कथा,

हृद्पिण्ड देह का भस्मीभूत होना, नदी
ही एकमात्र अंतिम वक्षस्थल है जहाँ
तमाम मान अभिमान डूब जाते
हैं, किनारे पर तैरते रह जाते
हैं शुभ्र वस्त्र, छिन्न पुष्प -
हार, धुएँ के साथ
उठता हुआ
दग्ध मांस
गंध !
कोई मुड़ कर नहीं देखता, बस मूकाभिनय
के सिवाय कुछ भी बाक़ी नहीं होता,
एक यही परम सत्य मुझे स्वयं
से जोड़े रखता है, दरअसल
एक कल्प लोक में हम
करते हैं निवास, हर
कोई पास रहने
का दावा
करता
ज़रूर है पर वास्तविकता में कोई भी नहीं
होता हमारे आसपास, स्वयं को भोगनी
होती है अपनी सभी व्यथा, मुझे
ज्ञात है विलीन उपरांत की
मर्म कथा ।।
- - शांतनु सान्याल












05 अप्रैल, 2024

महकती चाँदनी - -

महकती सी फ़िज़ा चाँदनी उतर चली है मद्धम मद्धम,

नाज़ुक दिल की परतों पे गिर रही है क़तरा ए शबनम,
लरज़ते ओंठ पे, गोया बिखर चली हैं नशीली सुर्ख़ियां,
चल रहे हैं सितारों की ज़मीं पे हाथ थामे दम - ब -दम, 
बहुत ख़ूबसूरत है ज़िन्दगी का ये फ़लसफ़ा ए रहगुज़र,
हज़ार मुश्किलें, रुकावटें फिर भी रवां रहे अपने क़दम,
कहाँ पे मिले किस की तलाश थी कुछ भी याद न रहा,
ज़रुरी नहीं ख़ालिस निकले, हर चेहरा राहत ए मरहम,
- - शांतनु सान्याल

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past