मुझे ज्ञात है विलीन उपरांत की मर्म कथा, हृद्पिण्ड देह का भस्मीभूत होना, नदी
ही एकमात्र अंतिम वक्षस्थल है जहाँ
तमाम मान अभिमान डूब जाते
हैं, किनारे पर तैरते रह जाते
हैं शुभ्र वस्त्र, छिन्न पुष्प -
हार, धुएँ के साथ
उठता हुआ
दग्ध मांस
गंध !
कोई मुड़ कर नहीं देखता, बस मूकाभिनय
के सिवाय कुछ भी बाक़ी नहीं होता,
एक यही परम सत्य मुझे स्वयं
से जोड़े रखता है, दरअसल
एक कल्प लोक में हम
करते हैं निवास, हर
कोई पास रहने
का दावा
करता
ज़रूर है पर वास्तविकता में कोई भी नहीं
होता हमारे आसपास, स्वयं को भोगनी
होती है अपनी सभी व्यथा, मुझे
ज्ञात है विलीन उपरांत की
मर्म कथा ।।
- - शांतनु सान्याल
सुन्दर
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