31 अगस्त, 2021

चकमक पत्थरों की भाषा - -

शब्दहीन ओंठों पर चिपके हुए हैं मुद्दतों से,
ख़्वाबों के ख़ूबसूरत चुम्बन, आईने
की हंसी में है व्यंग्य मिलित
कोई महिमा कीर्तन,
कौन किसे है
छलता
हैं
यहां, दरअसल हर चेहरे पर लगा होता है
और एक चेहरा, एकांत पलों में जो
घूरता है अरगनी से नग्न देह
का परावर्तन, आईने की
हंसी में है व्यंग्य
मिलित कोई
महिमा
कीर्तन। पत्थरों से है हमें प्रणय अभिलाष,
हम तराशते हैं उन्हें अपनी आदिम
तृष्णा मिटाने के लिए, रचते
हैं नित नए प्रयोग, छेनी
हथौड़ों से गढ़ते हैं
उसका बदन
ख़ुद की
ख़ुशी
पाने के लिए, भूल जाते हैं कि भाषाहीन
पत्थरों में है अदृश्य आग, जो कर
सकती है सोने का लंका दहन,
आईने की हंसी में है
व्यंग्य मिलित
कोई महिमा
कीर्तन।
* *
- - शांतनु सान्याल

30 अगस्त, 2021

निशांत पलों का पड़ाव - -

रात भर अंतःकरण के साथ चलता रहा
मीमांसा रहित कथोपकथन, कुछ
नोक झोंक, निशांत पलों का
मान मनौवल, आख़िर
रात ढले, झर गए
हरसिंगार,
उनींद
आँखों में था एक जागता हुआ उपवन,
फिर भी अशेष ही रहा स्वयं से
कथोपकथन। कभी शिखर
पर चढ़ते ही, एक ही
पल में शून्य
पर थी
ये ज़िन्दगी, समय के हाथों उलटता  
रहा पासा, नियति खेलती रही
सांप - सीढ़ी, कोई काम
न आ सकी जादू
की काठी,  
वही
पोशाक परिवर्तन, वही निःस्तब्ध -
मंच पर एकांकी प्रहसन, कुछ
भी न था अपना, एक
खोखला अहसास
और धुएं में
उठता
हुआ
ज़माने का अपनापन, रात भर - - -
अंतःकरण के साथ चलता
रहा मीमांसा रहित
कथोपकथन।
* *
- - शांतनु सान्याल


29 अगस्त, 2021

जी भर के देखा ही नहीं - -

मुख़्तसर सी ज़िन्दगी कभी हो जाती है
कई शताब्दियों सी लम्बी, कभी
यूँ लगता है जी भर के तुम्हें
देखा ही नहीं, न जाने
कितने जन्मों से
भटक रहा
है ये
चाहतों का अश्वत्थामा ले कर अनंत -
अनुभूति, अनगिनत हिस्सों में
हैं रिसते हुए घाव फिर भी
अविरल जीवनदायी
है ये महा पृथ्वी,
न जाने क्यूँ
लगता है
कभी
कभी, कि तुम्हारे बग़ैर कुछ बचा ही
नहीं, कभी यूँ लगता है जी भर
के तुम्हें देखा ही नहीं। बस
वही पल अमर हो गए
जो हमने थे साथ
गुज़ारे, बाक़ी
थे ओस -
बूंद
पत्तियों के किनारे, आ कर जाने कहाँ
खो गए, कहने को यूँ तो, हाथ पर
रहे, असंख्य मोह के लचीले
छल्ले, तुम्हें जो चाहा
एक बार किसी
और को
हमने
यूँ मिट कर चाहा ही नहीं, कभी यूँ - -
लगता है जी भर के तुम्हें
देखा ही नहीं।
* *
- - शांतनु सान्याल

 

 

28 अगस्त, 2021

अन्तःस्थल में कहीं - -

सजल नयन में है ग्रह नक्षत्रों का
आना जाना, पलकों के तीर
कहीं बसता है सपनों
का नगर, एक
बूंद की
सतह पर है ज़िंदगी का ठिकाना,
सजल नयन में है ग्रह नक्षत्रों
का आना जाना। तुम्हारी
रहस्यमयी, स्मित
में हैं बहमान
जुगनुओं
के
द्वीप, विस्तृत आलोक उत्सवों
का देश, जो पा जाएं उसे तो
उभर जाएं हम सुख दुःख
के तिर्यक जालों से,
वो क़रीब हो
कर भी
है
बहुत अनजाना, सजल नयन
में है ग्रह नक्षत्रों का
आना जाना।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

27 अगस्त, 2021

उस पार की मुलाक़ात - -

प्रस्तर युगीन, किसी एक आदिम बिहान
में कदाचित, अपना पुनर्मिलन हो,
गुह कंदराओं से निकल कर,
अरण्य वीथिकाओं में
कहीं हिम कणों
से धुल कर
पारदर्शी
ये जीवन हो, किसी एक आदिम बिहान
में कदाचित, अपना पुनर्मिलन
हो। अदृश्य उस मृत्यु पार
मुलाक़ात में, क्या
तुम पहचान
पाओगे ?
कहना शायद कठिन हो, फिर भी कहीं
न कहीं, पुष्प गंधों में शाब्दिक
स्पर्श रहेगा जीवित, तुम
छू लेना यूँ ही बेख़ुदी
में बिखरे हुए  
जीवाश्म
को,
मुमकिन है कहीं न कहीं मेरा ठिकाना
जान जाओगे, अदृश्य उस मृत्यु
पार मुलाक़ात में, क्या तुम
पहचान पाओगे ?
उस आदिम
लावण्य
में
पुनः हम सृजन करेंगे विमुक्त जीवन,
प्रकृति पुरुष का एकरूप
बंधन - -
* *
- - शांतनु सान्याल



  

26 अगस्त, 2021

क्षणिक बिलगाव - -

पंखुड़ियों के नाज़ुक परतों पर हैं अभी
तक तितलियों के स्पर्श बाक़ी,
अन्तःगंध है सीमाहीन
मधु कोष हैं क्षण
भंगुर, आंख
की है
अंतहीन गहराई जो एक बार डूब जाए,
फिर सतह तक लौटना हो मुश्किल,
उम्र भर की उस जल समाधि
में जीवन पा जाए परम
सुख मधुर, अन्तः -
गंध है सीमाहीन
मधु कोष हैं
क्षण
भंगुर। बहमान नदी कहाँ रूकती है
किनारों के कोलाहल से, सुदूर
सागर तट पर जा मिलती
है, अपने गहन नील
प्रियतम से, रोज़
बाहर निकल
कर रास्ता
भूल
जाता है वयोवृद्ध जीवन, चाय की
दुकान, पार्क की जंग लगी
बेंच, कृत्रिम सामूहिक
हास्य, अनुलोम
विलोम के
बीच से
हो
कर, घर लौट आता है वो आख़िर,
हर कोई, कहीं न कहीं बंधा
रहता है अदृश्य खूंटी
के भरम से, सागर
तट पर जा
मिलती
है
बहमान नदी, अपने गहन नील -
प्रियतम से।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

25 अगस्त, 2021

जंतर मंतर - -

कोई नहीं पढ़ना चाहता, किसी का
जीवन-वृत्तांत, पड़े रहते हैं
असंख्य पाती पुराने
लिफ़ाफ़े के
अंदर,
उम्र भर हम तलाश करते हैं एक
अदद वाचक, जो थाह पाए
अंतःकरण की गहराई,
बहुत मुश्किल है
मिलना यहाँ
निःस्वार्थ
कोई
परछाई, लवणीय हास लिए दूर
से तकता है नील समंदर, पड़े
रहते हैं असंख्य पाती
पुराने लिफ़ाफ़े के
अंदर। पुष्प
और
भ्रमर के मध्य घूमता रहता है
मधु चक्र, यूँ ही आते जाते
रहते हैं सदा ऋतुओं
के प्रेम पत्र, हर
पल सृष्टि
गढ़ती
है
जीवन के अपरिभाषित रूप -
कदाचित प्रकृति जानती
हो, अलौकिक कोई
जंतर मंतर,
पड़े रहते
हैं
असंख्य पाती पुराने लिफ़ाफ़े
के अंदर - -
* *
- - शांतनु सान्याल

24 अगस्त, 2021

अप्रत्याशित आगमन - -

उन्मेषित चाँदनी रात की चाहत में
ज़रूरी है, गुज़रना नागकणि के
राहों से, उस अधर पार है
सत या असत की
बूंदें, किसे क्या
ख़बर, रोक
पाना
है बहुत कठिन देह - प्राण को कांटे
दार चाहों से, ज़रूरी है, गुज़रना
नागकणि के राहों से। वो
कालिंदी तट हो या
सुदूर नील नद,
हर युग में,
होते हैं
विष पूर्ण सरीसृप, और त्राण हेतु -
हर युग में होते हैं कहीं न कहीं
महत् प्राण के अवतरण,
बुझते नहीं जीवन
के आलोक
स्तम्भ,
खुले
रहते हैं, सभी विकल्प द्वार गहन
समुद्र के बंदरगाहों से, ज़रूरी है,
गुज़रना नागकणि के
राहों से।
* *
- - शांतनु सान्याल


 

 

23 अगस्त, 2021

बंधन मुक्त प्रभात - -

हिन्दुकुश से लेकर म्यांमार तक हमने
देखा है, वही मासूम चेहरे चीखते
हुए, कांटेदार तारों के बीच
हाथ बढ़ा कर जीवन
की भीख मांगते
हुए, उड़ते
विमान
से
नीचे गिरते हुए, ख़ैबर दर्रे से निकल
कर हो सुदूर मलय प्रदेश, वही
मानवता का शव उठा कर
लोगों ने फेंका है बारम्बार,
हमने देखा है निरीह
लोगों का महा
निष्क्रमण,
रेल की
पटरियों में बिखरे हुए अंग प्रत्यंग,
गंगा के किनारों पर उभरी हुई
क़ब्रें, जली हुई झोपड़ियां,
टूटी हुई हांड़ी, बिखरे
हुए अध पके
चांवल,
हमने देखा है शुभ्र वस्त्रों में लोगों
का वीभत्स अट्टहास, वो
बामियान हो, या
उत्तर कोलकाता
मूर्ति तोड़ने
वाले
कहाँ नहीं मौजूद, हमने देखा है - -
स्वभाषा न होने का दंश,
वही लोग जो देते हैं
राष्ट्रभक्ति,
स्वधर्म
का
हुंकार, राजत्व की ख़्वाहिश में वही
चेहरे, अपनी ही जाति पर करते
हैं अत्याचार, हमने देखा है,
बहुत कुछ लघु जीवन
में, फिर भी हम
देखना चाहते
हैं एक
बंधन मुक्त भीगा सा प्रभात, जहाँ
हर चेहरा लगे शबनमी
गुलाब - -
* *
- - शांतनु सान्याल   
 










22 अगस्त, 2021

कांच की किरचें - -

कितनी सहजता से हम कह जाते हैं जो
गुज़र गया सो गुज़र गया, फिर भी
रात गहराते हम टटोलते हैं
गुज़रे हुए लम्हात,
स्मृति की
झोली
यूँ ही निष्क्रिय पड़ी रहती है बंद आंख
के किनारे, कांच की चुभन लिए
उंगलियों में, ज़िन्दगी
करवट बदलती
है सारी
रात,
रात गहराते हम टटोलते हैं गुज़रे हुए
लम्हात। किसे फ़ुर्सत है जो सोचे
किसी सजल आंख की आत्म
कहानी, अपना अपना
हिस्सा है सहर्ष
स्वीकार
करें,
साहसी सुबह की नाज़ुक धूप दरवाज़े
पर दे रही है दस्तक, बासी हो
कर भी ताज़ा है डेहरी पर
पड़ा हुआ अख़बार,
बस बाक़ी तो
है आनी
जानी,
इस से बड़ा सुख क्या होगा, सब कुछ
लुटने के बाद भी हे जिजीविषा
तुम आज भी हो मेरे साथ,
रात गहराते हम
टटोलते हैं
गुज़रे
हुए
लम्हात, ताउम्र नहीं भूल पाते हैं हम
गुज़रनेवाली बात।
* *
- - शांतनु सान्याल

21 अगस्त, 2021

मुलाक़ात - -

कितने दिनों के बाद यूँ आईने से बात हुई,
एक ज़माने के बाद, ख़ुद से मुलाक़ात हुई,
उम्र तो गुज़र गई, दरख़्तों के देखभाल में,
आख़री ढलान पे जा कहीं परछाई साथ हुई,
किसे याद रहता है, बचपन की नादानियां,
ख़्वाबों के सफ़र में, यूँ तमाम मेरी रात हुई,
हर कोई था बेचैन, हर कोई जां बचाता सा,
रात ढलते ज़िन्दगी इक आवारा जज़्बात हुई,
आप भी चाहें तो आख़री क़हक़हा लगा जाएं,
बहोत दिनों बाद शहर में, आज बरसात हुई।  
* *
- - शांतनु सान्याल

20 अगस्त, 2021

आत्मसात - -

एक अद्भुत अनुभूति लिए तुम होते हो
क़रीब, हिमशैल की तरह उन पलों
में निःशब्द बहता चला जाता
है मेरा अस्तित्व, गहन
नील समुद्र की तरह
क्रमशः देह प्राण
से हो कर
तुम,
अपने अंदर कर लेते हो अंतर्लीन, - -
और कभी यूँ लगता है जैसे
तुम मुझ से पृथक थे
ही नहीं, हृत्पिंड
से हो कर
तुम
बहते हो अविरल रक्त शिराओं से
हो कर, मैं बारहा चाह कर भी
तुम से ख़ुद को कर नहीं
पाता हूँ विच्छिन्न,
देह प्राण से
हो कर
तुम,
अपने अंदर कर लेते हो अंतर्लीन। -
गतिमान चाक से ले कर धधकते
हुए भठ्ठी तक का सफ़र नहीं
आसां, ये वो सुराही है
जो ख़ुद जल के
बुझाता है
ज़माने
भर
की प्यास, तुम्हें पाने और खोने का
समीकरण जो भी हो, शून्यता
को भेद, धूम्र वलय सदा
रहते हैं ऊर्ध्वमुखी,
अंततः सब
कुछ तुम
तक
पहुँच कर हो जाते हैं अपने आप - -
विलीन, देह प्राण से हो कर
तुम, अपने अंदर कर
लेते हो अंतर्लीन।
* *
- - शांतनु सान्याल 

19 अगस्त, 2021

इच्छा-मृत्यु - -

सायादार दरख़्तों के बीच है पिंजरों का
संसार, बंद कांच के घरों में तैरती,
रंगीन मछलियां, खोलती हैं
मुग्धता का द्वार, इन
कटहरों से झांकते
हैं कुछ विश्व
विख्यात
चेहरे,
जिन्हें मिल चुका है, चुप रहने का - -
पुरस्कार, सायादार दरख़्तों के
बीच है पिंजरों का संसार।
कुछ आवाज़ चीखते
चीखते निस्तब्ध
हो चुके हैं
कुछ
उकसाने पर सिर्फ़ गुर्रा जाते हैं, हर
शख़्स यहाँ पर कहना चाहता है
बहुत कुछ, लेकिन कहते
कहते वो सभी भर्रा
जाते हैं, अजीब
से हैं सभी
लोग
यहाँ अपने अपने चिड़ियाघर तक
सीमाबद्ध, नियति को बनाए
बैठे हैं लक्ष्मण रेखा, नहीं
चाहते अग्निवलय
को करना पार,  
सायादार
दरख़्तों के बीच है पिंजरों का संसार।
* *
- - शांतनु सान्याल


 

18 अगस्त, 2021

सत्य का स्वाद - -

किसी अंध मोह के लिए मैं धृतराष्ट्र
नहीं बन सकता, साथ चलना
हो ग़र तुम्हें, उतार फेंकों
अंधकार की पट्टी,
ये पथ है शूलों
से भरा, ये
कोई
अंतःपुर नहीं है, अनायास ही हर एक
बात पर हामी न भरो, एक बार
नहीं हज़ार बार, अधर्म का
प्रतिकार करो, अपने
अंतर्मन के प्रश्नों
को अनवरत
धारदार
करो,
सत्य का स्वाद माना कि मधुर नहीं
है, ये पथ है शूलों से भरा, ये कोई
अंतःपुर नहीं है। मुझे नहीं
चाहिए सामूहिक आत्म -
हनन का रास्ता
अंतिम सांस
तक मैं
अन्याय का प्रतिवाद करूंगा, मृत्यु
को आने दो प्रकृत रूप से, जीने
के लिए ज़रूरी नहीं कि आँख  
मूँद कर हर एक शर्त को
स्वीकार कर लिया
जाए, विवेक
के पत्थर
को
हर हाल में सान दूंगा, माना की - -
इस पथ पर चलना कठिन
है लेकिन दूभर नहीं
है, ये पथ है
शूलों से
भरा, ये कोई अंतःपुर नहीं है, सत्य
का स्वाद माना कि मधुर
नहीं है।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

17 अगस्त, 2021

आख़री सांस तक - -

हर एक व्यक्ति कहीं न कहीं लड़ता
है अपने अंदर के एकांतवास से,
ये और बात है कि ओठों
पर मुहुर्मुहु हंसी
छुपा जाती
है दिल
की
बात अपने आसपास से, दरअसल -
हमें पता है कि कोई साथ नहीं
देता जब कभी घिर आता
है गाढ़ अंधकार, तब
अंतर्मन का दीप
अकेला ही
खोल
जाता है सभी बंद द्वार, हम पुनः -
जी उठते हैं अंतःस्थल के मौन
विश्वास से, हर एक व्यक्ति
कहीं न कहीं लड़ता है
अपने अंदर के
एकांतवास
से। ये
वही
मंत्र है जो मुरझाने नहीं देता हमारे
भीतर के चिर श्यामल अंतः -
करण को, रोकता है हर
हाल में बढ़ते हुए
बंजरपन
को,
संतप्त वसुधा करती है इक रूहानी
अनुबंध अंतहीन आकाश से,
हर एक व्यक्ति कहीं
न कहीं लड़ता
है अपने
अंदर
के एकांतवास से, फिर भी ज़िन्दगी
बंधी रहती है हर किसी के
आख़री सांस से।
* *
- - शांतनु सान्याल


 

16 अगस्त, 2021

मंज़िल दर मंज़िल - -

यहीं ख़त्म नहीं होते तमाम
रास्ते, इस के आगे भी
हैं गंतव्य ढेर सारे,
बा' इस-ए-
तस्कीं
जो
भी हो, साझा दर्द हैं हमारे
तुम्हारे, तुम तोड़े गए
संग ए मुजस्मा हो,
किसी उजड़े
हुए
महल ए इबादत के, तो
क्या हुआ, संवरते
बिगड़ते रहते
हैं ज़िन्दगी
के
सितारे, जो उम्र भर करता
रहा भविष्यवाणी दूसरों
के लिए, ख़ुद से था
अनजान
बहोत,
डूबा
ले गई उसे उथली नदी
किनारे किनारे,
हमल ए
सुबह
में
छुपा है क्या कोई बता
सकता नहीं, रस्म
ए दुनिया का
कारोबार
अपनी
जगह है रवां, कोई जीते या
कोई हारे - -
 * *
- - शांतनु सान्याल  

 

15 अगस्त, 2021

पचहत्तर साल बाद - -

रक्तिम किले के प्राचीर से काश देख
पाते हम, नंगे पांव बालक का
मुरझाया हुआ चेहरा, जो
फुटपाथ में कहीं
बेच रहा है
काग़ज़ी
तिरंगा, संसद के रण मंच से काश हमें
दिखता सुदूर आदिवासी गांव का
कच्चा रस्ता, चारपाई पर
लोग ले जाते हुए
अंतःसत्त्वा,
सिर्फ़
दूरबीन से हम देखते हैं कुछ एक नगर
में तेज़ सरसराती हुई चमकीली
रेलगाड़ियां, अट्टालिकाओं
के ऊपर से उड़ते हुए
उड़न खटोले,
लेकिन
अफ़सोस हम नहीं देख पाते नज़दीक -
का गांव, जो पचहत्तर साल के
बाद भी वैसा ही है रंगहीन
बेढंगा,  काश देख
पाते हम, नंगे
पांव बालक
का
मुरझाया हुआ चेहरा, जो फुटपाथ में
कहीं बेच रहा है काग़ज़ी
तिरंगा।
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 
 
 

उन्मुक्त प्लावन - -

अभी बहुत कुछ देखना है बाक़ी, अहाते
में फैली हुई है सुख की नरम धूप,
कुछ अर्ध - अंकुरित स्वप्न
भूगर्भ से बाहर आने
को हैं व्याकुल,
न बंद करो
सदर -
दरवाज़ा, अभी बहुत कुछ देखना है - -
बाक़ी। बरामदे से लग कर है एक
ज़ीना, बोगनवेलिया से ढका
हुआ, कुछ सूखे पत्तों
पर बिखरे पड़े हैं
शिशिर बिंदु
इतिवृत्त
की
पृष्ठों से पुनः उभरेंगे हम अनाम देश के
जैसे रानी और राजा, न बंद करो
सदर दरवाज़ा, अभी बहुत
कुछ देखना है बाक़ी।
सीढ़ियों से लगे
छत पर है
रहस्य
की
एक दुनिया, खुला नीला आकाश, तारों
से सजा मायावी शामियाना, अशेष
आलोक स्रोत, शून्य में तैरते
हुए असंख्य ग्रह नक्षत्र,
अनंत मुग्धता का
का अज्ञात
प्रदेश,
बहने दो हमें इस रात की गहनता में दूर
तक चाहे जो भी हो ख़ामियाज़ा, न
बंद करो सदर दरवाज़ा, अभी
बहुत कुछ देखना है
बाक़ी।     
  * *
- - शांतनु सान्याल  

 

14 अगस्त, 2021

अन्तर्जलि यात्रा - -

एक ख़ुशगवार सुबह की चाह में सभी
खड़े हैं गेरुआ नदी के किनारे,
नाभि पर्यन्त पानी में
डूबा हुआ देह
कर चला
है -
अन्तर्जलि यात्रा, तुम्हारे शीशमहल -
के अंदर उड़ रहीं हैं अनगिनत
रंगीन तितलियां, पंक्ति
के आख़री बिंदु पर
जो आदमी
खड़ा है,
तुम
नहीं जानते, वो आख़िर जी रहा है - -
किस तरह, नाभि पर्यन्त पानी
में डूबा हुआ देह कर चला
है अन्तर्जलि यात्रा।
तुम्हारे ख्वाबों
को मिल
चुके
हैं आशातीत उड़ान, तुम लिख रहे हो
आकाश पथ पर अपनी नाम की
तख़्ती, तुम्हें पंख देने वाले
ख़ुद भूल चुके हैं, अपनी
पहचान, वो ढूंढते हैं
सुबह से शाम
तक जीने
की इक
मुश्त
वजह, नाभि पर्यन्त पानी में डूबा - -
हुआ देह कर चला है
अन्तर्जलि
यात्रा।
 * *
- - शांतनु सान्याल  

 

13 अगस्त, 2021

यायावर मेघ - -

लौट गए उसी ईशान कोणीय देश में,
सभी मेघ दल, जहाँ से उड़ कर
थे वो आए, छोड़ गए छत
के किनारों पर शैवालों
के हरित प्रदेश,
जो बहुत
जल्दी
ही
सूख जाएंगे, समय का मरहम भर -
जाता है दर्द की गहराइयां, कोई
किसी के लिए नहीं रुकता,
बादलों की तरह लोग
छोड़ जाते हैं कुछ
पलों के लिए
अपने गीले
निशान,  
फिर
सुदूर वादियों में शरद देता है दस्तक,
सज उठता है अरण्य पुष्पों से
सारा परिवेश, लौट गए
उसी ईशान कोणीय
देश में, सभी मेघ
दल, जहाँ से
उड़ कर
थे वो
आए, छोड़ गए छत के किनारों पर - -
शैवालों के हरित प्रदेश।
* *
- -  शांतनु सान्याल


















 

12 अगस्त, 2021

विचाराधीन निर्णय - -

अप्रत्याशित पलों में बुझ जाते हैं झाड़ -
फ़ानूस, समय खेलता है हमारे
साथ अंधेरे में शतरंज,
एक रात की है
बाज़ी,
बिखरे पड़े हैं चारों तरफ़ कांच के मोहरे,
सुबह से पहले हम उठाते हैं बिसात,
बहुत कुछ ज़िन्दगी में रहता
है अनिर्णीत, काल पुरुष
की छाया से मुक्त
हो कर हम
लड़ते
है
नित नए जंग, समय खेलता है हमारे
साथ अंधेरे में शतरंज। बाढ़ का
पानी, उतरते ही लिख जाता
है किनारे की रेत पर
नदी की आत्म -
कथा, धूप
की
तरह जिजीविषा मेरी, थामे रखती है
शून्य आँचल तुम्हारा, मैं भूल
जाता हूँ उम्र भर की सब
मूक व्यथा, ये जान
कर भी मेरी
चाहत
कभी ख़त्म नहीं होती कि हर शख़्स
को एक दिन जाना है निस्संग,
समय खेलता है हमारे
साथ अंधेरे में
शतरंज।
 * *
- - शांतनु सान्याल

11 अगस्त, 2021

असमाप्त कविता - -

संभव नहीं एक ही जीवन में परिपूर्ण प्रणय
की प्राप्ति, न जाने कितने प्रकाश वर्ष
चाहिए तुम तक पहुँचने के लिए,
तुम्हें रूह से महसूस करने
के लिए चाहिए न
जाने कितने
जन्म
जन्मांतर की पुनरावृति, संभव नहीं एक
ही जीवन में परिपूर्ण प्रणय की प्राप्ति।
सहज नहीं एक ही जीवन में
तुम तक पहुँच पाए हिय
प्रेषित असमाप्त
कविता, इस
अनंत
अभिलाष का गंतव्य है कहाँ, मुझे ज्ञात  
नहीं, बही जा रही है सहस्त्र आलोक
स्रोत लिए अपने संग, वक्ष स्थल
की विक्षिप्त सरिता, इस
संक्षिप्त जीवन में
मुमकिन नहीं
है प्रेम
करना, अनंत जीवन चाहिए इस चाह के
लिए फिर भी न हो पाएगी इस
अक्षय प्रीत की समाप्ति,
संभव नहीं एक ही
जीवन में
परिपूर्ण
प्रणय
की प्राप्ति - - -

* *
- - शांतनु सान्याल
 

10 अगस्त, 2021

बिंदु बिंदु जीवन यापन - -

इस सीमान्त से उस आख़री छोर तक
हैं असंख्य आलोक पुञ्ज, पूरा
शहर ओढ़े बैठा है रंगीन
विज्ञापन, इस हाथ
से उस हाथ
बदल
रहे
हैं रहस्यनील घटनाचक्र, क्रय विक्रय
के नीचे हैं बिंदु बिंदु जीवन यापन,
पूरा शहर ओढ़े बैठा है रंगीन
विज्ञापन। हर एक मोड़
से जुड़े हैं, न जाने
कितने ही
गली
कूचे, जन अरण्य के इस महा कलरव
में गुम हैं अनगिनत प्रतिध्वनियां,
किसे फ़ुरसत है यहाँ, कौन
किस के लिए सोचे,
क्या नगरपाल
और क्या
नागर,
सभी मिलेंगे अनावृत, जब कभी उठे -
झूठ का आवरण, पूरा शहर ओढ़े
बैठा है रंगीन विज्ञापन।
ये सभी हैं पारद
झरे आईने,
कहने
को
प्रजातंत्र के चौथे स्तम्भ, शायद वही
बताएं क्या हैं इनके मायने, हर
तरफ है मिथ्या जयगान,
कूप मंडूक बनाए
रखने का
सतत
अभियान, घिसे पिटे हलफ़नामे पर
एक नया मोहर, आश्वासन के
बाद आश्वासन, पूरा शहर
ओढ़े बैठा है रंगीन
विज्ञापन।

* *
- - शांतनु सान्याल

 












   
   




 

09 अगस्त, 2021

अंतःस्थल का उपवन - -

तुम्हें संवारने की चाह में हज़ार बार
उजड़ा है मेरे अंदर का उपवन,
न जाने किन रास्तों से
हो कर गुज़री है
ज़िन्दगी,
कभी
वक़्त मिले तो देख लेना प्रणय कुंड
का चिर दहन, तुम्हारी चाहत
में हज़ार बार मैंने छोड़ी
है अपनी मधुरिम
काया, और
धारण
की,
अपने अन्तःस्थल में केवल तुम्हारी
ही छाया, फिर भी एकाकी ही
रहा मेरा जीवन, तुम्हें
संवारने की चाह
में हज़ार बार
उजड़ा है
मेरे
अंदर का उपवन। तुमने चाहा कि -
सभी संग्रहित सुखों का हो
परित्याग, सुतराम्
अपरिग्रह के
पथ पर
हो
अग्रसर, मैंने गहन अरण्य को बोया
अपने अंदर, फिर भी मैं अकेला ही
रहा, कहने को हम सभी के
भीतर बहती हैं असंख्य
स्रोतस्विनी, जो
एक दूजे से
मिल कर
भी
कभी नहीं मिलती, मृगजल के सिवा
कुछ भी नहीं होता उस अंत्यमिल
बिंदु पर, फिर भी देता है ये
निःसीम सुख, अंतर का
कालजयी समर्पण,
तुम्हें संवारने
की चाह
में हज़ार बार उजड़ा है मेरे अंदर का -
उपवन - - -

* *
- - शांतनु सान्याल  

   
   





08 अगस्त, 2021

सीमाहीन परिधि - -

कांच के चौकोरों को बांध रखा है हमने
सुरभित काठ के फ्रेमों में, ताकि
दिखा पाएं अपने अंदर का
ऐश्वर्य सारे जग को,
कांच तो आख़िर
कांच ही है
टूट -
जाएगा एक दिन, टूट जाएंगे निःशब्द -
सभी मृत्तिका के निर्जीव खिलौने,
हम तलाशते फिरेंगे अपना
बिखरा हुआ अस्तित्व
फ़र्श के कोनों में,
कांच के
चौकोरों को बांध रखा है हमने सुरभित
काठ के फ्रेमों में। दरअसल ज़िन्दगी
का फ़लसफ़ा कुछ भी नहीं,
बेवजह हम सो नहीं
पाते रात भर,
किताबों
में
खोजते रहते हैं खुश रहने के नुस्ख़े - -
चाहत की परिधि को हमने
तान रखा है आकाश
तक, हासिल
करना
चाहते हैं ज़रूरत से कहीं अधिक वैभव,
भूल जाते हैं आत्म शांति की
रहगुज़र, बांट जाते हैं
अपना वजूद
असंख्य
ख़ेमों
में,  
कांच के चौकोरों को बांध रखा है हमने
सुरभित काठ के
फ्रेमों में।

* *
- - शांतनु सान्याल

 

07 अगस्त, 2021

निर्बंध एहसास - -

बहुत कुछ कहने को रहता है सब
कुछ भीग जाने के बाद, एक
सोंधा सा एहसास बना
रहता है देर तक
वर्षा थम
जाने
के बाद। भीगी हवाओं में तैरते हैं
मेघ कणों के शब्द, कोहरे  
की तरह बातें करती
हैं तब अंदर की
स्तब्धता,
वो
चाहती हैं बहुत कुछ उजागर - -
करना, वो ढूंढती हैं खोया
हुआ शैशव, नदी
पहाड़ का
खेल,
अतीत के ज़र्द बटुए से झांकती - -
रहती है  अक्सर आज भी
मख़मली मुग्धता।
अवाक ह्रदय
देखता
रहता है उन क्षणों में महीन कपास
की तरह गिरते हुए तुषार
कणिका, वो छूना
चाहता है
उन्हें
नज़दीक से, हथेलियों में रह जाते
हैं कुछ सजल माटी गंध,
ज़िन्दगी उन लम्हों
में लगती है
निर्बंध    
कोई चार पंक्तियों की क्षणिका - -

* *
- - शांतनु सान्याल
 


06 अगस्त, 2021

ख़ूबसूरत ऋण - -

आकाशरंगी लिफ़ाफ़े में हैं बंद, कुछ भीगे हुए
दिन, गहन नींद से चुराए हुए कुछ मीठे
सपन, सिक्त कामिनी फूलों के
गंध, मैं चाह कर भी न
लौटा पाऊंगा वो
ख़ूबसूरत
ऋण।
समुद्र की विशालता है अपनी जगह लेकिन
दूरत्व रेखा खींच जाता है उसका अंतहीन
खारापन, तुम्हारे सीने से उभरती है
धुंधली सी इक नदी, सर्दियों
में कोहरे से लबरेज़
भोर हो जैसे
कोई,
मुझे शेष पर्यन्त तक बांधे रखता है तुम्हारा
निःशब्द अपनापन, वो प्रेम है या स्पृहा,
शब्दकोश के पृष्ठों में नहीं मिलता
है जिसका कोई पता, वो जो
भी हो इस जीवन को
होने नहीं देता
है मलिन,
मैं चाह
कर भी न लौटा पाऊंगा वो ख़ूबसूरत ऋण।

* *
- - शांतनु सान्याल


05 अगस्त, 2021

गहरी नींद से पहले - -

कभी एहसास करो ख़ुद के अंदर, कि
तुम हो एक मासूम चेहरा, मंदिर
की सीढ़ियों पर चुपचाप खड़ा
हुआ, तुम महसूस करो
अपने भीतर, कि
तुम चाहते
हो बंद
हथेलियों में कच्चे नारियल का एक -
छोटा सा फांक, और कुछ नकुल -
दाने, कभी अनुभव करो कि
नींद से पहले एक झटका
तुम्हें चमत्कृत कर
जाए, और वो
प्रसाद जो
तुम्हारे
हाथ में था फ़र्श पर दूर तक बिखर -
जाए, कदाचित उन्हें खोज कर
अपने ही कपड़ों से धूल
झाड़ कर तुम उन्हें
हलक़ से नीचे
उतार लो,
तब
तुम्हें स्पष्ट दिखाई दे जाएंगे जीवन
के सही माने, तुम महसूस करो
अपने भीतर, कि तुम चाहते
हो बंद हथेलियों में
कच्चे नारियल
का एक
छोटा
सा फांक, और कुछ नकुल - दाने। - -


* *
- - शांतनु सान्याल



04 अगस्त, 2021

अनवद्य सृष्टि - -

निर्विकार सा खड़ा रहता है वृक्ष
अपनी जगह, फल्गु तट
का हठ योगी हो जैसे
कोई, संतप्त
फूल
पल्लव झर जाते हैं असमय ही,
पतझर के बहुत पहले, देह
का पिंजर तकता
है खुले आकाश
को प्रत्याशित
दृष्टि से,
जलविहीन है नदी का विस्तृत
पाट, रेत के नीचे कहीं
विलुप्त से हैं
अनुरागी
स्रोत,
इस
पार से उस पार तक, फैली
हुई है शुष्क नदी घाटी,
बिखरे पड़े हैं कुछ
स्मृति अर्घ्य,
कुछ सूखे
फूल -
पत्ते, पतली टहनियां,
नियति के आगे
सभी होते हैं
निरुपाय,
वृक्ष
को कोई शिकायत नहीं है
इस ख़ूबसूरत सृष्टि से,
देह का पिंजर
तकता है
खुले
आकाश को प्रत्याशित दृष्टि
से।

* *

- - शांतनु सान्याल

03 अगस्त, 2021

अतल से धरातल का सफ़र - -

रात के सीने में छुपे रहते हैं अनगिनत
अंध गह्वर, दूर तक रहता है गहन
अंधेरा, ज़िन्दगी उतरती है
धुंध की सीढ़ियों से
क्रमशः नीचे
बहोत -
नीचे की ओर जहाँ निमग्न कहीं बैठा
होता है सहमा सा एक बूंद सवेरा,
दूर तक रहता है गहन अंधेरा।
इस एक बूंद में है कहीं
समाहित, युगों का
अग्रदूत जो
कहता
है आगे बढ़ो, मुझे छूने की कोशिश तो
करो, तुम्हें कोई नहीं है यहाँ रोकने
वाला, नीलाभ जुगनुओं में
बसता है क्षितिज पार
का उजाला, रात
ढलती है
रोज़
की तरह छोड़ जाती है, उन्मुक्त सीने
पर कुछ शिशिर बिंदु, सीप की
अधखुली आँख से झांकता
है सुदूर जीवन नदी
का किनारा,
दूर तक
पसरा हुआ है, नरम धूप का डेरा, रात
के सीने में छुपे रहते हैं अनगिनत
अंध गह्वर, दूर तक रहता
है गहन अंधेरा।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

02 अगस्त, 2021

उद्गम - -

सहस्त्र धाराओं में बहती है भूमिगत नदी,
वक्षस्थल के ऊपर, निझूम पड़ी
रहती  है चंद्रप्रभा की चादर,
उठते गिरते निश्वासों में
जागता रहता है मरू
प्यास रात भर,
न जाने
किस
जगह आ कर, डूब जाते हैं जुगनुओं के -
घर, रात ढूंढती है हमें, अज्ञात
हँसुली मोड़ पर, वक्षस्थल
के ऊपर, निझूम पड़ी
रहती है चंद्रप्रभा
की चादर।
दोनों
तट
पर बिखरी होती हैं असंख्य निशिपुष्प
की पंखुड़ियां, रूह तलाशता है उन
पलों में गुमशुदा ख़ुश्बुओं
का ठिकाना, रेतीले
देह पर उभरे पड़े
रहते हैं कुछ
ओस बूंद,
एक
सजल अनुभति भूला देती है हमें कुछ
पलों के लिए मुरझाना, स्पर्श के
मानचित्र पर, हम पा जाते
हैं ज़िन्दगी के भूले
हुए रहगुज़र,
वक्षस्थल
के ऊपर,
निझूम पड़ी रहती है चंद्रप्रभा की चादर।  

* *
- - शांतनु सान्याल  

01 अगस्त, 2021

बंद दरवाज़ा - -

तमाम रात होती रही बरसात, सारा
मोहल्ला दरवाज़ों पर कड़ी लगाए
सोता रहा, जाने कौन था वो,
जो रात भर रुंधी
आवाज़ से
मुझे
बुलाता रहा, कपाट के ठीक उस पार
उड़ान पुल के नीचे है, स्तम्भ
विहीन घरों का शहर,
कुछ समय से
पहले,
ज़बरन बुढ़ाए गए चेहरे, कुछ खिलने
से पूर्व मुरझाए हुए बचपन, मैं
चाह कर भी न खोल पाया
अंतर द्वार, रात भर
दस्तक, न जाने
क्या, बड़ -
बड़ाता
रहा, जाने कौन था वो, जो रात भर
रुंधी आवाज़ से मुझे बुलाता रहा।
अस्तित्व और बिंब के मध्य
का दूरत्व, मुझे अपने
आप से बाहर
निकलने
नहीं
देता, उन रिक्त स्थानों पर हैं मोह
के नाज़ुक धागे, जिन्हें तोड़ने
का साहस मुझ में नहीं,
दर्द लिए सीने में,
यूँ ही ख़ामोश
करहाता
रहा,
बारिश कब थमी मुझे कुछ भी ख़बर
नहीं, शायद, गहरी नींद में
बाक़ी पहर, मैं सोता
रहा, रात की
बात को
यूँ ही
भुलाता रहा, जाने कौन था वो, जो
रात भर रुंधी आवाज़ से
मुझे बुलाता
रहा।

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 






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