एक ख़ुशगवार सुबह की चाह में सभी
खड़े हैं गेरुआ नदी के किनारे,
नाभि पर्यन्त पानी में
डूबा हुआ देह
कर चला
है -
अन्तर्जलि यात्रा, तुम्हारे शीशमहल -
के अंदर उड़ रहीं हैं अनगिनत
रंगीन तितलियां, पंक्ति
के आख़री बिंदु पर
जो आदमी
खड़ा है,
तुम
नहीं जानते, वो आख़िर जी रहा है - -
किस तरह, नाभि पर्यन्त पानी
में डूबा हुआ देह कर चला
है अन्तर्जलि यात्रा।
तुम्हारे ख्वाबों
को मिल
चुके
हैं आशातीत उड़ान, तुम लिख रहे हो
आकाश पथ पर अपनी नाम की
तख़्ती, तुम्हें पंख देने वाले
ख़ुद भूल चुके हैं, अपनी
पहचान, वो ढूंढते हैं
सुबह से शाम
तक जीने
की इक
मुश्त
वजह, नाभि पर्यन्त पानी में डूबा - -
हुआ देह कर चला है
अन्तर्जलि
यात्रा।
* *
- - शांतनु सान्याल
14 अगस्त, 2021
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आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 14 अगस्त 2021 शाम 4.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर रचना |
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर वर्णन
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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