पंखुड़ियों के नाज़ुक परतों पर हैं अभी
तक तितलियों के स्पर्श बाक़ी,
अन्तःगंध है सीमाहीन
मधु कोष हैं क्षण
भंगुर, आंख
की है
अंतहीन गहराई जो एक बार डूब जाए,
फिर सतह तक लौटना हो मुश्किल,
उम्र भर की उस जल समाधि
में जीवन पा जाए परम
सुख मधुर, अन्तः -
गंध है सीमाहीन
मधु कोष हैं
क्षण
भंगुर। बहमान नदी कहाँ रूकती है
किनारों के कोलाहल से, सुदूर
सागर तट पर जा मिलती
है, अपने गहन नील
प्रियतम से, रोज़
बाहर निकल
कर रास्ता
भूल
जाता है वयोवृद्ध जीवन, चाय की
दुकान, पार्क की जंग लगी
बेंच, कृत्रिम सामूहिक
हास्य, अनुलोम
विलोम के
बीच से
हो
कर, घर लौट आता है वो आख़िर,
हर कोई, कहीं न कहीं बंधा
रहता है अदृश्य खूंटी
के भरम से, सागर
तट पर जा
मिलती
है
बहमान नदी, अपने गहन नील -
प्रियतम से।
* *
- - शांतनु सान्याल
26 अगस्त, 2021
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सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (27-08-2021) को "अँकुरित कोपलों की हथेली में खिलने लगे हैं सुर्ख़ फूल" (चर्चा अंक- 4169) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहमान नदी कहाँ रूकती है
जवाब देंहटाएंकिनारों के कोलाहल से, सुदूर
सागर तट पर जा मिलती
है, अपने गहन नील
प्रियतम से, रोज़
बाहर निकल
कर रास्ता
भूल
जाता है वयोवृद्ध जीवन...बहुत ही सुंदर सृजम हमेशा की तरह।
सादर
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंरोज़
जवाब देंहटाएंबाहर निकल
कर रास्ता
भूल
जाता है वयोवृद्ध जीवन,
सही कहा ...क्योंकि अब घर उसका ठौर नहीं... समय के साथ बहती नदी की तरह उसे भी मिलना हैगहन नील प्रियतम से...
लाजवाब सृजन।
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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