शब्दहीन ओंठों पर चिपके हुए हैं मुद्दतों से,
ख़्वाबों के ख़ूबसूरत चुम्बन, आईने
की हंसी में है व्यंग्य मिलित
कोई महिमा कीर्तन,
कौन किसे है
छलता
हैं
यहां, दरअसल हर चेहरे पर लगा होता है
और एक चेहरा, एकांत पलों में जो
घूरता है अरगनी से नग्न देह
का परावर्तन, आईने की
हंसी में है व्यंग्य
मिलित कोई
महिमा
कीर्तन। पत्थरों से है हमें प्रणय अभिलाष,
हम तराशते हैं उन्हें अपनी आदिम
तृष्णा मिटाने के लिए, रचते
हैं नित नए प्रयोग, छेनी
हथौड़ों से गढ़ते हैं
उसका बदन
ख़ुद की
ख़ुशी
पाने के लिए, भूल जाते हैं कि भाषाहीन
पत्थरों में है अदृश्य आग, जो कर
सकती है सोने का लंका दहन,
आईने की हंसी में है
व्यंग्य मिलित
कोई महिमा
कीर्तन।
* *
- - शांतनु सान्याल
31 अगस्त, 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 31 अगस्त 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुदर रचना शांतनु जी, बहुत ही खूब---कि
जवाब देंहटाएंहम तराशते हैं उन्हें अपनी आदिम
तृष्णा मिटाने के लिए, रचते
हैं नित नए प्रयोग, छेनी
हथौड़ों से गढ़ते हैं
उसका बदन
ख़ुद की
ख़ुशी
पाने के लिए---वाह
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत खूब | कृष्णजन्माष्टमी की शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (01-09-2021) को चर्चा मंच "ज्ञान परंपरा का हिस्सा बने संस्कृत" (चर्चा अंक- 4174) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 1 सितंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत खूब...👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति ,सादर नमन सर
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएं