एक अद्भुत अनुभूति लिए तुम होते हो 
क़रीब, हिमशैल की तरह उन पलों 
में निःशब्द बहता चला जाता 
है मेरा अस्तित्व, गहन 
नील समुद्र की तरह 
क्रमशः देह प्राण 
से हो कर 
तुम, 
अपने अंदर कर लेते हो अंतर्लीन, - -
और कभी यूँ लगता है जैसे 
तुम मुझ से पृथक थे 
ही नहीं, हृत्पिंड 
से हो कर 
तुम 
बहते हो अविरल रक्त शिराओं से 
हो कर, मैं बारहा चाह कर भी 
तुम से ख़ुद को कर नहीं 
पाता हूँ विच्छिन्न,
देह प्राण से 
हो कर 
तुम, 
अपने अंदर कर लेते हो अंतर्लीन। -
गतिमान चाक से ले कर धधकते 
हुए भठ्ठी तक का सफ़र नहीं 
आसां, ये वो सुराही है 
जो ख़ुद जल के 
बुझाता है 
ज़माने 
भर 
की प्यास, तुम्हें पाने और खोने का 
समीकरण जो भी हो, शून्यता 
को भेद, धूम्र वलय सदा 
रहते हैं ऊर्ध्वमुखी, 
अंततः सब 
कुछ तुम 
तक 
पहुँच कर हो जाते हैं अपने आप - - 
विलीन, देह प्राण से हो कर 
तुम, अपने अंदर कर 
लेते हो अंतर्लीन। 
* * 
- - शांतनु सान्याल  
20 अगस्त, 2021
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वाह कविवर, बहुत सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएं🙏
हटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंशानदार सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुंदर।
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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