22 मार्च, 2011

कहीं बरसी हैं घटायें, हवाओं में है ताज़गी
ये गीलापन छुपा ले गईं आँखों की नमी
पलकों की वादियों में फिर खिलने लगे हैं
फूल, संवार भी लो बिखरे ज़ुल्फ़ परेशां !
कि ज़िन्दगी का सफ़र अभी है बहुत बाक़ी,
--- शांतनु सान्याल

16 मार्च, 2011

नज़्म

जो नज़र झुके न किसी के दर्द में भीग कर
ख़ुद को तबाह कर जाती है इक दिन दर्द बन कर,
ये ज़िद की  मैं हूँ सिर्फ़ शाहे कायनात इस दौर का 
ख़लाओं  में  भटकती हैं तमाम रूहें मौत बन कर,
वो कोई ग़ैर नहीं मेरा ही साया था हमराह चला 
छलता रहा वही हर क़दम मेरी चाहत बन कर, 
मेरी ज़ात है सिर्फ़ इक ख़ुदा की मख़लूक़ , ये सोच 
न डूब ले जाए वक़्त के क़ब्ल क़यामत बन कर, 
पत्थरों में भी हैं देवता, ये है इश्क ए इन्तहां 
उसने आदमी मुझे बनाया मेरी ही चाहत बन कर,
हर शख्स में देखूं ख़ुदा की मूरत मैं बेपनाह 
बिखर जाऊं सुखी वादियों में आबे हयात बन कर,   
किसी के अश्क, ग़र कर न सके दिल को तरबतर 
जीना ही क्या ऐसा , ख्वाब ओ ख्यालात बन कर,
जी हाँ, बुत परस्त हूँ मैं मुझे हर सै से है मुहोब्बत 
अह्सासे वफ़ा न बुझने दे मुझे ख़ुद बरसात बन कर,
अहमियत इसी में है कि मिट जाऊं किसी के लिए 
मुझे मंज़ूर नहीं लम्बी उम्र, जी

ऊँ  सवालात बन कर !
- - शांतनु सान्याल    



15 मार्च, 2011

अपरिचित मुख

न जाने कौन थे वो लोग जो पत्थरों में 
आग से लिख गए अनगिनत जिवंत कविताएं
आज भी पठारों में खिलते हैं झरबेरी 
हल्की बूंदों से भी भरती हैं मृत मरू सरिताएं 
जाने क्या बात थी उनमें की गूंजती हैं 
आवाज़ें, मंदिर कलश को छुएं अतृप्त भावनाएं 
कुछ तो रहस्य था उनकी इस आत्मीयता में 
वो हर पल हर डगर उम्मीदों की अलख जगाएं 
नदी घाटों में वृन्द आरती गढ़े अलौकिक -
अनुभूति, चहुँ दिशा निसर्ग वैदिक ऋचा दोहराएँ. 
--- शांतनु सान्याल

12 मार्च, 2011

नज़्म

किस से करें शिकायत की हर कोई है यहाँ बदगुमां
ये वही शख्स है जिसने दी थीं झूठी गवाहियाँ
ये वही रक़ीब है मेरा जो रहा मुद्दतों बनके रहनुमां
न पूछो हस्र ए मुहोब्बत, ऐ डूबते सितारों मुझसे 
ये वही ज़मीं है मेरी और मुस्कराता वही आसमाँ
लिपटा रहा आस्तींसे ताउम्र नफ्से दोस्त बनकर 
ये वही जगह है, कभी रौशन था मेरा भी आशियाँ !
वो जो कहते थे कि हूँ मैं मिशाले हुस्न बेपनाह 
वही आईना है वही चेहरा मेरा और ये छाइयाँ.
कभी कोई मंदिर हुआ करता था यहीं कहीं क़रीब
आज बाज़ारे जिस्त में रहती हैं मशहूर हस्तियाँ.
न जाने कौन सी शै थी जो ले गई काजल चुराकर 
ये वही उदास आँखें तकतीं हैं खुद की परछाइयां .
यहीं कहीं से उठा था धूल का बवंडर बहुत ऊपर 
ये वही है फ़िज़ा वही रास्ते वही बिखरता कारवां.
यहीं आसपास ख्वाबों ने ली थी कभी आखरी साँसें  
हदे नज़र शायद यहीं कहीं हो रौशन मज़ारे बागबां. 
वो दहकते मशालों वाले हाथ वही हिकारत की नज़र 
अब भी छलते हैं वो ज़िन्दगी, आंसू व्  तनहाइयाँ.
कौन गुज़रा है टपकते खून भरे क़दमों से यहाँ 
फिसलन भरी है क्यूँ दर्द की ये राहे मेहरबानियाँ.
मैं उठा तो लूँ  तीरों कमान, अहदे वफ़ा फिरसे 
चाहत के सफ़र में लेकिन कम नहीं हैं दुस्वारियां.
सरकते पर्दों से झांकती हैं क़हर भरी निगाहें 
राख़ के बादिलों में भी क्या होती हैं बिजलियाँ.
बरसने की ख्वाहिश लिए जागता रहा उम्र भर मैं
क्यूँ फिर नहीं सुलगतीं ये खामोश सूखी वादियाँ.
--- शांतनु सान्याल

09 मार्च, 2011

ग़ज़ल - - इंद्रजाल सा आकाश

ये इंद्रजाल सा आकाश, अधखुली सीप सा मन
झांकती हैं नन्हीं सी किरण, अँधेरे के आर पार,
कोई मासूम हथेली छुपाये रखे हों जैसे जुगनू
उँगलियों के दरारों से जो निकल जाएँ  बार बार,
 ख़ुशी की उम्र बढ़ न पाई सींचा उसे निशि दिन
बौने पौधों में न फूल खिले, लौटती रहीं बहार,
जीवन के ताने बाने में बिनीं रेशमी सपनों की
डोरी, हर वक़्त संवारा प्रति पल टूटे तार तार ,
रात गुज़रे कौन रंग जाता है रोज़ पूरब की रेखा
अनचाहे न जाने रोज़ दे जाता है,जीवन उधार,
ये सलीब रहा ज़िन्दगी भर मेरा जिगरी दोस्त
कांधे के सिवाय इसका नहीं कोई भी आधार ,
कहाँ छोड़ आऊं उम्मीद भरे ये इर्द गिर्द चेहरे
उदास लम्हों में भी मुस्कुराते हैं ये बेरंग दीवार,
--- शांतनु सान्याल

08 मार्च, 2011

नज़्म

 नज़्म 
अफ़सोस क्या करें हम ये रश्मे दुनिया है -
निभा जाओ तुम भी ज़माने के दस्तूर,
न पहचाने की वो अदायगी है ख़ूबसूरत 
हैं टूटती बूंदें आखिर बिखरने को मजबूर, 
हिसाब क्या करें सुबह की धूप के लिए -
यूँ भी ज़िन्दगी में दर्दो अलम हैं भरपूर,
ये सितारों की भीड़, फिर रात की नीलामी 
ख़्वाबों न छुओ मुझे, हूँ मैं थकन से चूर,
वो सभी मरहम  दे न सके राहतें उम्रभर -
लौटा दिए, माना है मंज़िल बहुत ही दूर, 
न देखो मुझे फिर उसी अंदाज़े वफ़ा से 
ग़र ज़िन्दगी रही तो लौट आएंगे ज़रूर,
--- शांतनु सान्याल

 


05 मार्च, 2011

नज़्म - - अनकही बातें


संगे साहिल पर रुको तो ज़रा 
टूटतीं लहरों में जीने की उम्मीद बंधे 
अभी तो डूबा है, सूरज सागर पार 
शाम के धुंधलके में सांस लेतीं हैं -
अनकही बातें, कैसे कहूँ तुमसे वो 
दर्दे बेक़रां, कांप से जाते हैं ओंठ 
सहम सी जाती हैं जां, पत्तों की
ये सरसराहट है, या टूट टूट जाये 
कोमल शाखों से अरमानों के ओस,
ये समंदर भी क्या चीज़ है, तकता
हूँ, मैं बड़ी हसरत से प्यास लिए -
इक बूंद में जैसे ज़िन्दगी हो शामिल,
उसे बरसना ही नहीं जब क्या कीजे 
ये अँधेरा है, या कोई बादलों का साया 
छू तो जाए सारा बदन हवाओं की तरह 
दिल ही छुट जाए तो कीजे।
--- शांतनु सान्याल 

02 मार्च, 2011

मधुमास की छुअन

मधुमास की छुअन
वो ख़ूबसूरत इत्र की शीशी अब भी
   हमने रखी है, बहुत ही सहेज के -
सुगंध है ओझल, अहसास बाक़ी !
  जी चाहे अक्सर की सजा दूँ तुम्हें
फिर मौसमी फूलों से, दायरे हैं -
  सिमटे,ज़ख़्म के गुच्छे हैं वज़नी,
झुक सी जातीं हैं निगाहें कहीं पे
  जा कर, ये आग की लपटें हैं या -
फिर सुलगती हैं, अनबुझी यादें,
   कौन है,न जाने शाम ढलते -
सजा जाता है आहिस्ते ख़ामोशी,
   दूर तलक फिर खिले हैं बुरुंस
पहाड़ी में फिर लगे हैं शायद
  जुगनुओं के मेले, झरनों में हैं
बहती मधुमास की छुअन धीमे धीमे,
--- शांतनु सान्याल

مدھماس  کی چھوون 
 خوبصورت  عطر  کی  شیشی 
  ہمنے  رکھی  ہے ،  بہت  ہی  سہیج  کر -
سگندہ  ہے  اوجھل ، احساس  باقی
جی  چاہے   اقسر  کی  سجا  دوں  تمہیں
پھر  موسمی  پھولوں  سے ، دایرے  ہیں   
سمٹے ، زخم  کے  گچچھے  ہیں  وزنی 
جھک  سی  سی  جاتیں  ہیں  نغاہیںکہیں پے
جا  کر ، یہ  آگ  کی  لپٹیں  ہیں  یا   
پھر سلگتی  ہیں ، انبجھی  یادیں
کون  ہے  نہ  جانے  شام  ڈھلتے
سجا  جاتا  ہے  آھستے  خاموشی  
دور  تک  پھر  کھلے  ہیں  برنس
جگنوؤں  کے میلے ،  جھرنوں  میں  ہیں
بہتی  مدھماس  کی چھن  دھیمے  دھیمے
شانتانو  سانیال - 
  


    

    

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past