28 अगस्त, 2014

शायद उसने सोचा था - -

 शायद उसने सोचा था, कि उसके बग़ैर
मेरी ज़िन्दगी, इक ठूंठ से कुछ
कम न होगी, लेकिन
ऐसा कभी नहीं
होता, हर
ज़ख्म
का इलाज है मुमकिन, पतझड़ के बाद
बहार का लौटना है मुक़र्रर, इक
दिल ही टूटा था वरना हर
शै थी अपनी जगह
बतौर मामूल !
सो हमने
भी दर्दो ग़म से समझौता सीख लिया -
सूखे पत्तों की थीं अपनी क़िस्मत,
या उम्र का तक़ाज़ा, जो भी
कह लीजिए, शाख़
से गिरना था
तै इक
दिन, कोंपलों की है अपनी दुनिया, हर
हाल में था उन्हें उभरना, चुनांचे
हमने भी मौसमी हवाओँ
से बख़ुदा, दोस्ती
करना सीख
लिया,
ये सच है कि तेरी मुहोब्बत इक नेमत
से कम न थी, फिर भी हर हाल
में हमने जीना सीख
लिया।

* *
- शांतनु सान्याल

 

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art by Karen Margulis
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26 अगस्त, 2014

किसे यहाँ ख़बर - -

नाकामियों से ही, मैंने सीखा है -
ज़िन्दगी जीना, चैन कहाँ
मिलता है हार जाने
के बाद, कि इक
बेक़रारी
मुझको रुकने नहीं देती शिकस्त
बिंदु पर, जहाँ रुकते  हैं मेरे
क़दम, वही से मेरा 
आग़ाज़ ए
सफ़र
होता है, ये तै नहीं कि आसमानी
लकीर ही है मेरी मंज़िल,
सुना है, कहकशाँ से
भी आगे है कोई
ख़ूबसूरत
जहां !
चाहे जितनी भी बुलंद क्यूँ न हो
ज़माने की तंज़िया हंसी !
हर शै की उम्र है
मुक़र्रर
कौन किस पल बिखर जाए - - -
किसे यहाँ ख़बर - -

* *
- शांतनु सान्याल 


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06 अगस्त, 2014

सब कुछ था उसमे लेकिन - -

कुछ रंगीन कांच के टुकड़े या
फ़र्श में बिखरे हुए हैं टूटे
ख़्वाब के आंसू,
लेकिन
शीशे की थी अपनी मजबूरी -
सो टूट गया, मेरे चेहरे
में वो अक्सर न
जाने क्या
ढूंढते
हैं, जबकि मुद्दतों से हमने - -
आईना नहीं देखा, वो
गुलदान था कोई
दिलकश, जो
ज़माने
से रहा दिल में क़ाबिज़, ये -
और बात है कि उसके
सीने में सजे थे
सिर्फ़
काग़ज़ के फूल, सब कुछ - -
था उसमे लेकिन ख़ुश्बू
ए वफ़ा न थी - -

* *
- - शांतनु सान्याल 


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