30 जून, 2023

संसर्गतो जायते

सन्तप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न श्रूयते
मुक्ताकारतया तदेव नळिनीपत्रस्थितं दृश्यते ।स्वात्यां सागरशुक्तिमध्यपतितं तन्मौक्तिकं जायतेप्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो जायते ॥

- नीतिशतक
गर्म लोहे की प्लेट पर पानी की एक बूंद तुरंत अपना अस्तित्व खो देती है। कमल के पत्ते पर गिराने पर वही बूंद मोती का आकार ले लेती है। लेकिन, समुद्र के बीच में भी, सीप में प्रवेश करने वाली पानी की एक बूंद असली मोती में बदल कर अपनी नियति को प्राप्त कर लेती है। कालान्तर में किसी व्यक्ति का मनहूस, औसत या असाधारण बनना उसकी संगति पर निर्भर करता है।

গরম লোহার থালায় এক ফোঁটা জল অবিলম্বে অস্তিত্ব হারায়। পদ্ম পাতায় পড়লে একই শরত মুক্তোর মতো হয়। কিন্তু, এমনকি সমুদ্রের মাঝখানে, ঝিনুকের মধ্যে প্রবেশ করা জলের একটি ফোঁটা প্রাকৃতিক মুক্তোতে পরিণত করে তার ভাগ্য অর্জন করে। সময়ের সাথে সাথে, একজন ব্যক্তি একজন হতভাগা, একজন গড় বা অসাধারণ একজন হয়ে ওঠেন কেমন সংঘ কিংবা সাথী রাখেন তার উপর নির্ভর করে ।

A drop of water on a hot iron plate immediately loses existence. The same fall is shaped like a pearl when dropped on a lotus leaf. But, even in the middle of the ocean, a drop of water that enters the oyster achieves its destiny by turning it into a natural pearl. In time, a person becoming a wretched one, an average one or an extraordinary one depends on the company he keeps.

-Neetishataka
inner beauty 
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29 जून, 2023

निःशब्द समीह - -

हिय की बतियाँ कोई न जाने, अंखियन बरसत नीर,
अगन बिन लौ की, निशदिन तिल तिल झरत शरीर,

हिन्डोलित अलस नयन ज्यूँ बकुल लचकत डारी डारी,
देह अन्तःरंग बिलसित, कदम्ब झुके जस जमना तीर,

भरमाय चंद्रमल्लिका शेष पहर, अम्बुआ मुकुल सम,
पग झटकत मृग अकुलाय, मधुरिम बहत मृदु समीर,

पिघलत शशि कोर कोर, रह रह महुआ फूल झर जाय,
हिय से कभी न निकसे चाहे पांव पड़े दुनिया के जंजीर, 

मधुर सुगंध, अंचरा भर भर  जाय बनफूलन के सखी
पोर पोर रंग भरी किसने, बिन होरी उड़त रंग अबीर,

रह रह उठत हूक बंसी के, हिय घबराय, पथ भरमाय,
चाहे मन सकल तज दूँ मैं, सांवरे बिन छलकत धीर ,

निःशब्द समीह, कान्हा बांधत रह रह मधु बाहु डोर,
हिरनी सम ब्रज बाला, पग गिरत परत, होत अधीर। 
- शांतनु सान्याल

28 जून, 2023

सूरजमुखी

उस दर्द पोशीदा चेहरे में, ज़माने के इनाम थे
उजागर, मुस्कराहटों में बूंद बूंद उसके
खूं टपकते देखा, वो फिर भी
जीने का अहद लेके
मुस्कुराता रहा
उम्रभर,
नुमाइशगाह में अक्सर ज़िन्दगी को दहकते
देखा, लोग कहते रहे क्या ख़ूबसूरत
है मुस्सवरी, उस शाम के
आस्मां में थे रंग यूँ
तो  गहरे लेकिन
स्याह रात
में सभी
नक़ली कपड़े उतरते देखा, उनकी हर बात में
थी तिजारती बातें, लेन देन के सिवा
कुछ भी नहीं, हर क़दम इक
मरासिम, नए दस्तखत,
नए मुतालबे,
ज़िन्दगी
को हमने, हर मोड़ पे बिखरते देखा, सुबह थे
सभी गुल ओ शाख़ अपनी जगह,
शाम ढलते, सूरजमुखी को 
हम ने, न चाहते भी
झुकते देखा।

- शांतनु सान्याल

سورجمكھي

اس درد پوشیدہ چہرے میں، زمانے کے انعام تھے
اجاگر، مسكراهٹو میں بوند بوند اس کے
كھو ٹپكتے دیکھا، وہ پھر بھی
جینے کا عہد لیکے
مسکراتا رہا
امربھر،

نماشگاه میں اکثر زندگی کو دہکتے
دیکھا، لوگ کہتے رہے کیا خوبصورت
ہے مسسوري، اس شام کے
اسما میں تھے رنگ یوں
تو گہرے لیکن
سیاہ رات
میں تمام

نقلی کپڑے اترتے دیکھا، ان کی ہر بات میں
تھی تجارتي باتیں، لین دین کے سوا
کچھ بھی نہیں، ہر قدم اک
مراسم، نئے دستخط،
نئے متالبے،
زندگی

کو ہم نے، ہر موڑ پہ بكھرتے دیکھا، صبح تھے
تمام گل او شاخ اپنی جگہ،
شام ڈھلتے، سورجمكھي کو
ہم نے نہ چاہتے بھی
جھکتے دیکھا.


-- شانتنو سانیال

27 जून, 2023

मधु स्पर्श

नीरव रजनी, झरे थम थम पारिजात
महके निशिगंध निःस्तब्ध पीपल पात,
नेह सजे फिर बैरागी, भूलें हम संसार
अतृप्त श्रोत बहती जाए अंतर्मन के पार,
अहर्निश सुप्त यमन, गाए निर्झर गान,
अशांत हिय, क्लांतमय, मम देह प्राण,
जलरंग चित्र, रिश्तों के नाज़ुक दीवारें,
घुलनशील स्मृति कण ये दर्द की फुआरें,
मायावी पृथ्वी जी चाहे छूना स्वर्ण हिरण,
अलकों में मोती, देह बने सीप आवरण,
सुरभित स्वर, मुखरित शेष प्रहर संगीत,
अधरों में मधु स्पर्श, हृदय पुष्प मनमीत।
- शांतनु सान्याल 

26 जून, 2023

जिस्म को हमने जला दिया

जिस्म को हम ने जला दिया
मुक़्क़दस आग की 
तरह, तुम ने ग़र 
न देखा धुआं
अक़ीदत 
का 
क्या क़सूर हम ने ख़ुद को 
मिटा दिया अनचाहे  
बैराग की
तरह,

कहाँ से लायें वो यकीं जो 
ख़ुदा को लाये सामने
हम ने ख़ुशियाँ 
मिटा दी
उजड़े 
हुए 
सुहाग की तरह,

तुम्हारे इश्क़ में खो सी गयीं, 
हमारी पहचान, दिल में 
छुपाये रखा तग़ाफ़ुल 
अनमिट 
दाग़ 
की तरह,

इस जुस्तजू में उम्र कट गई
कि लौटेंगी बहारें एक 
दिन, हैं सदियों से 
बिखरे अरमां
सूखे वीरान 
किसी 
बाग़ की तरह,

फूलों के मौसम आये गए आसमां 
रंग बदलता रहा, हम ने ख़ुद 
को भुला दिया पुराने 
नग़मा ए राग 
की तरह,

जिस्म को हम ने जला दिया
मुक़्क़दस आग की तरह। 
- शांतनु सान्याल 

25 जून, 2023

पुरातन देवालय

दूर तक तैरतीं काई, जलोच्छ्वास लेते कुछ
कमलिनी, जब देह बने जलासय,
तट के कचनार, वन्य कुसुम, हरित तृण
बांस वन तक चाहें जल समाधि,
मन्त्र मुग्ध मृग दल पिपासा लिए सहमें
कुछ पल ठहरें, अंतर्मन सरीसर्प
न जाने कब हों जागृत और ग्रास हो जाएँ,
रहस्यमयी, स्थिर जलराशि गहन
अनंत, अंधकार थाह न जाने कोई, प्रवेश
सहज, सुगम मनोहर, निर्गमन द्वार
हों जैसे मायाविनी भ्रमित संसार
छायामय चिर धरातल, निःश्वास विहीन
तलछट समेटे महा दहन निशि दिन
प्रति पल अदृश्य अग्निशिखा प्रज्वलित,
भोर में उठतीं वाष्पीकृत वेदनाएं
पर्यटक खोजें निसर्ग सौन्दर्य, ह्रदय मध्य
गिरतें प्रति क्षण पुरातन देवालय।
--- शांतनु सान्याल  

24 जून, 2023

अंतिम अध्याय - -

जो कुछ भी था आसपास, असल में कुछ भी मेरा न था,
जीवन एक वृत्त के भीतर ही करता रहा अनेक निर्वासन,

यात्रा में असंख्य पड़ाव आए कुछ पल थम कर आगे बढ़े,
भूमिका जिस तरह की रही वैसा ही रहा बिंब - परावर्तन,

कुछ अनुबंध थे अनचाहे कुछ समझौते जीने की मजबूरी,
प्रत्येक रात बंजर भूमि, हर सुबह एक मिथ्या आश्वासन,

समय है एक कुशल रफू कारीगर हरेक दरार को भर जाए,
उतार चढ़ाव के साथ ही अहर्निश चलता रहा जीवनयापन,

मृगतृषा की तरह थे सभी चाहत कल्प वृक्षों से लटके हुए,
प्रणय पिपासा अंतहीन, सघन अरण्य में नित्य अनुधावन,
* *
- - शांतनु सान्याल    

23 जून, 2023

रंगीन कारवां - -

ऐ दोस्त, कुछ भी तैशुदा नहीं पहले से यहाँ,
इक वादी  ए  पुरअसरार है ये ज़िन्दगी,
और धुंध में डूबे हुए हैं नफ़्स के
कहकशां। न जाने क्या
क्या मन्सूबे थे उस
शख़्स के पास,
लेकिन
ढह गए सभी रफ़्ता रफ़्ता ख़्वाबों के मकां।
इतना भी ग़ुरूर ठीक नहीं कि आईना
भी पराया सा नज़र आने लगे,
मजाज ए क़िस्मत किसे
ख़बर, कब खिसक
जाए ये ज़मीं
और कब
दे जाए दग़ा ख़ामोश आसमां। ऐ दोस्त,
कुछ भी तैशुदा नहीं पहले से यहाँ,
है दूर - दूर तक वीरानी का
आलम, जहाँ कभी
रुकते थे दुनिया
के रंगीन
कारवां।

* *
- शांतनु सान्याल 





22 जून, 2023

कई मधुर स्वप्न जागे

सुदूर मुहाने में हैं अप्रत्याशित
कई  मधुर स्वप्न जागे,
चंचल सरिता और
जलधि मिलते
हैं दूर कहीं
जा आगे ,
उस
मिलन बिंदु में प्लावित से
हैं कुछ अनंत अनुबंध,
कुसुमित आर्द्र
भूमि, जहाँ
मोहित
से हैं
बावरे  मकरंद, प्रीत की
असंख्य पाल
नौकाएं
बहती
जाएँ  
धीमे धीमे, जीवन लहर गिरती
उठती मचलती सी जाएँ
धीमे धीमे, वारिद
नयन, तृषित
ह्रदय,
मधुरिम सा ये समर्पण लागे, सुदूर
मुहाने में हैं अप्रत्याशित कई  
मधुर स्वप्न जागे।
- शांतनु सान्याल

20 जून, 2023

आँख खुलते ही - -

तुम मुझ में एक मुद्दत से हो विलीन,
तुम्हारी चाहत का सफ़र है अंतहीन,

यूँ तो चेहरे बदल गए वक़्त के साथ,
किंतु बिम्ब रहे, हमेशा ही अर्वाचीन,

शब्द पहेली से कम नहीं है ये जीवन,
कटपिट के मध्य छुपा पुरातन नवीन,

आसां नहीं है, अपने हक़ूक़ को पाना,
हिस्से को ज़बरन लानी पड़ती है छीन,

हस्त रेखाओं की गणना अपनी जगह,
दुःख सुख के बीच एक रेखा है महीन,

ग्रह नक्षत्र खिलौने की तरह हैं घूम रहे,
नियति शिशु खेल रहा हो कर तल्लीन,

हर किसी को चाहिए सपनों के सौगात,
आँख खुलते ही सुबह रहे शब्द विहीन,
- -  शांतनु सान्याल



मेघ बिखरने से पूर्व - -

उतर आई है रात सधे
पांव तलहटी के
झुरमुट में,
गहरा
चली
सी
है ज़िन्दगी ख़ूबसूरत से
आहट में, एक दूजे
में हो विलीन
बह चले
हैं
आकाश पथ में, एक
अद्भुत अनुभूति है,
अंतरिक्ष के
सरसराहट
में, ग्रह
नक्षत्र,
समुद्र, पृथ्वी सब लग
रहे हैं दिव्य बिंदु,
उल्लसित हैं
देह प्राण
प्रणयी
मेघ
के गड़गड़ाहट में, झिर
झिर झर रहे हैं, निशि
पुष्प के सुगंध बूंद
बूंद, छू लिया
हम ने
आकाशगंगा को यूँ ही
घबराहट में।
* *
- - शांतनु सान्याल

जो हमें चाहे टूट कर

गिरते पत्तों ने हमारी अहमियत बयां की है 
हमें इसका ज़रा भी, अफ़सोस नहीं होता,
चेहरे पे हमने भी जड़ लिया है रंगीन मुखौटा, 
लहरें थमीं सी लगे, हर शै ख़ामोश नहीं होता,

तुम्हारे दृष्टिकोण से ज़माने को है क्या लेना,
हर शख्स की यहाँ अपनी मुख्तलीफ़ है दुनिया,
तुम चाहो जियो हर लम्हा ख़ुद के तस्सवुर से,
हमारी नज़र में कुछ बेतरतीब सी है दुनिया,  

हमारी मंज़िल सिर्फ तुम तक आ नहीं रूकती, 
ज़ेहन में हैं न जाने अनगिनत ख़्वाब कितने,
तुम इश्क़ में ज़िन्दगी को मुकम्मल समझे, 
सवालात तो हैं बेशुमार लेकिन जवाब कितने, 

जो दिखाई दे नज़र के सामने रूबरू जाने जाँ,
हम तो सिर्फ उस नाचीज़ की बंदगी करेंगे,
तुम चाहो तो कोई और फ़लसफ़ा इज़ाद करो,
जो हमें चाहे टूट कर, उसके नाम ज़िन्दगी करेंगे। 

- - शांतनु सान्याल 


18 जून, 2023

स्वप्न संग्रह

शेष प्रहर रात्रि, अभी अभी एक द्रुतगामी रेल,
विक्षिप्त की तरह काँस फूलों के बीच,
शुभ्र ज्योत्स्ना को चीरती हुई, सुदूर 
किसी वन्य नदी के जलधाराओं 
को पृथक करती, धड़धड़ाती 
हुई, निष्ठुरता के साथ 
क्षितिज को भेदती, 
कमलिनी के 
आलिंगनबद्ध वृन्तों को थरथराती, झील के 
स्थिरता को झकझोरती, नीलाभ्र आलोकित 
स्वप्नों को चूर करती, न जाने कहाँ किस 
गंतव्य की ओर यूँ दौड़ गई जैसे 
कोई महाकाय सरिसर्प 
समुद्र से सहसा
विकराल 
अग्निमुखी बन अम्बर को निगल जाना चाहे, 
और चन्द्र तारक अन्तरिक्ष में एक दूसरे 
से यूँ जा मिलें जैसे मालती लताएँ
सहस्त्र प्रसूनों को श्रृंखलित 
करना चाहें, साधारण 
जीवन सहमा 
सहमा कई 
बार, खिडकियों से उस रेल के गुज़रने को देखता 
है और फिर फर्श में बिखरे हुए टूटे 
तारों को इकठ्ठा करता है। 
- - शांतनु सान्याल
 स्वरचित चित्र 

16 जून, 2023

सायादार निगाह - -

मृत है वो नदी जो अंदर तक बहती
थी अनाविल धाराओं में, हर
कोई है सीमाबद्ध ख़ुद
तक मकड़जाल
हैं अंध
कंदराओं में,

न्याय अन्याय सब हैं बराबर
शुतुरमुर्ग़ सा व्यक्तित्व
है मेरा, सब कुछ देख
कर भी कुछ नहीं
देखा ख़ुश हूँ
घर की
पनाहों में,

फीते काटने का जश्न देखते
हुए, बूढ़ा गई निगाहों की
रौशनी, शिलालेख बन
कर रह गई है
ज़िंदगी,
कुछ
भी न बचा चाहों में,

एक टूटा हुआ चंद्रबिंदु आज भी
उभरता सा लगे तेरी आँखों में,
बेदख़ल किराएदार हूँ, मुद्दतों
से बैठा हूँ महानगर के
चौराहों में,

अनगिनत भागों में बांटा गया
मेरा वजूद कि शेष कुछ
भी नहीं, फिर भी
खोजता हूँ पल
भर की राहत
किसी
सायादार निगाहों में,
* *
- - शांतनु सान्याल

15 जून, 2023

समान नागरिक संहिता


 ☘️समान नागरिकता संहिता के लिए ई - मेल करें और देश के हित में अपने विचार लिखें ।☘️ membersecretary-Ici@gov.in जल्द से जल्द समान नागरिक संहिता पूरे देश में शक्ति से लागू किया जाए, इस तरह से क़ानून बने कि कोई भी राज्य राजनैतिक फ़ायदे के लिए अगर  इसका विरोध करे तो उसे हर हाल में रोका जाए, देश के विस्तृत हित को नज़र में रखा जाए ताकि जनसांख्यिकीय अनुपात में परिवर्तन न हो, समान नागरिक संहिता से कुछ हद तक जनसंख्या विस्फोट पर अंकुश किया जा सकता है, महिलाओं को अपने अधिकार प्राप्ति में सहजता होगी, एक देश एक क़ानून से राष्ट्रीयता की भावना भी सुदृढ़ होगी, क़ानून इस तरह से पारित हो कि सरकार बदलने पर भी ये अप्रभावित रहे, समय की मांग यही है जो भी हो समान नागरिक संहिता, जनसंख्या नियंत्रण क़ानून, धर्मांतरण क़ानून इत्यादि इस तरह से पारित करें कि कोई भी राज्य इस का उल्लंघन न कर सके, कठोरतम दंड के साथ इन क़ानूनों को अतिशीघ्र पारित किया जाए, नमन सह ।

ई - मेल करें और देश के हित में दो शब्द लिखें। membersecretary-Ici@gov.in

One Nation One Law
️Please E-mail for Uniform Civil Code and write your views in the interest of the country. ☘️ membersecretary-Ici@gov.in Uniform Civil Code should be implemented with full force in the whole country as soon as possible, laws should be made in such a way that any state can not oppose for political gains,  keeping in view the wider interest of the country so that the demographic ratio does not change, population explosion can be curbed to some extent by uniform civil code, it will be easy for women to get their survival rights, the feeling of nationalism will also be strengthened in country, the law should be implemented in such a way that it remains unaffected even after the change of government, this is the need of the hour, whatever it may be, uniform civil code, population control law , Pass the conversion law etc. in such a way that no state can violate it, these laws should be passed at the earliest with the harshest punishment.  E-mail and write two words in the interest of the country. membersecretary-ici@gov.in 🌿



14 जून, 2023

अहं अनन्तं स्वप्नं पश्यामि - -

आलोक छायामय नदी के वक्ष स्थल
पर झुके हैं वट शाखा प्रशाखा, 
जटाएं, तट से कुछ दूर है 
मालविका वन, अहंकार 
यहाँ है मृत्युमुखी, 
अनन्तां पृथिवीं 
पश्यामि - . 
उद्घोषित मन्त्र कहीं विलीनता को 
दर्शाए, पुनर्जीवित हों सभी सुप्त 
इच्छाएं जागृत हों स्वप्न 
जो नदी तट ने ग्रास 
किए श्रावणी 
अझर वृष्टि 
पूर्व, 
देह धरणी, अतृप्त कामनाएं जो - -
मायाजाल बिछाएं प्रति क्षण,
विछिन्न्तायें बैराग के 
संकेत नहीं होते, 
जीवन चक्र 
गतिमय 
प्रतिपल, तटिनी सम ह्रदय लिए देखूं 
एक तीर धूम्रमय पार्थिव शरीर 
दूसरे कूल नव किशलय 
गर्भित, मध्य श्रोत 
अज्ञात, अदृश्य 
किन्तु प्रवाहित 
जलराशि चिर गतिमान, यहीं अभिनव 
सृष्टि का है उदय, अहं अनन्तं 
स्वप्नं पश्यामि - -
 -  शांतनु सान्याल 


  

13 जून, 2023

क्या हुआ कि हर बार हार जाता हूँ - - -


अंतिम प्रहर की उन निस्तब्ध पलों में -
क्लांत रात्रि उतार जाती है उतरन,
कुछ फीके फीके आलोकपुंज 
चंद्राकार माथे का टिका,
झरित निशि पुष्पों 
का झूमर,
कुछ उदासीन देह गंध, परिश्रांत चन्द्रिमा, 
फिर भी ये ज़िन्दगी, हृदय चाहता 
तुम्हें आलिंगनबद्ध करना, 
सांसों में चिरस्थायी 
भरना, चुम्बनों 
से नए गीत 
रचना,
ये मेरी अभिलाषा कहो या वासना, मुझे -
कोई अंतर नहीं पड़ता, मैं चाह कर 
भी उसे यूँ व्यथित, आहत छोड़ 
नहीं सकता, तथागत बन 
नहीं सकता, एक 
अदना बूंद हूँ 
मैं, मुझे 
इसकी ख़बर है, लेकिन  बूंदों से ही भरते 
हैं समुद्र गहरे, खिलते हैं कंटीली 
झाड़ियाँ, उभरते हैं नव स्वप्न 
भीग कर शिशिर कणों
से, मैं जीवन को 
हर बार सजा  
जाता हूँ,
क्या हुआ कि हर बार हार जाता हूँ  - - - 

-- शांतनु सान्याल
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12 जून, 2023

पुनः वापसी - -

वयोवृद्ध स्मृतियां कभी मरती नहीं,
बारम्बार लौट आती हैं बन कर
जातिस्मर, कतिपय
असमाप्त सृजन
कुछ अधूरे
स्वप्न,
पुनर्मिलन के लिए देते हैं अवसर,
कोई मानें या नहीं, देह के
भष्म से पुनः उग
कर इतिवृत्त
रचता है
विप्लवी
घर,
दंड यष्टि है पास तुम्हारे, किन्तु
ये न भूलें कि नियति विधान
में हैं सभी बराबर,पुनर्जन्म
ले कर फिर तुम से होगी
भेंट, किसी अन्य
रूप रंग में
किसी
और नगर, इतिहास दोहराता है
स्वयं को फिर जी उठेंगी
डूबी नौकाएं, पाल
उड़ेंगे शहर शहर,
कुछ ख़ामोश
पल, रेशमी
स्पर्श,
मधुर अनुभूति के संग जुड़े रहते हैं
सदा परस्पर।
* *
- - शांतनु सान्याल

 
   










10 जून, 2023

जल समाधि - -

दिवसांत के अंतिम सीढ़ी पर खड़ा हूँ, जिस के
नीचे है गहन तिमिर जलराशि, कुछ मोह
के पराग कण देह से हैं चिपके हुए,
कुछ प्रणय गंध बह रही हैं
स्नायु कोशिकाओं से
हो कर वक्षस्थल
तक, सामने
है विस्तृत
निशि
पुष्प अरण्य, इन सत्य पलों में हर एक व्यक्ति
होता है अथाह अभिलाषी, दिवसांत के अंतिम
सीढ़ी पर खड़ा हूँ, जिस के नीचे है गहन
तिमिर जलराशि। वो सभी तर्क
दर्शन हैं सतही हिमखंड से,
टूट जाते हैं अपने
आप ही ख़ुद
के बनाए
गए  
वज़नी आदर्श - मापदंड से, डूब चला हूँ मैं बहुत
अंदर किसी अंध मीन की तरह, कोई डस
रहा है देह को अपने तीक्ष्ण नखर से,
ये मधु दंश क्रमशः समाधिस्थ
कर चला है सभी जीवन
के उद्वेग से, यूँ तो
सृष्टि हर पल
करती है
नव
सृजन, सब कुछ रहता है हिय के अंदर, न कोई
अनुताप, न ही कोई गहरी उदासी, दिवसांत
के अंतिम सीढ़ी पर खड़ा हूँ, जिस के
नीचे है गहन तिमिर जलराशि।
* *
- - शांतनु सान्याल  

09 जून, 2023

ख़्वाबों के सिलसिले - -

फिर उभर चले हैं, निगाहों में
ख़्वाबों के सिलसिले, इक
अजीब सी ख़लिश
है आजकल
दिल
में मेरे, वादियों में खिल रहे
हैं गुलों की क्यारियां,
फिर महक रही
है किसके
लिए
न जाने मेरी तन्हाइयां, वो -
कौन है, जो ख़ुश्बुओं में
ढल कर, रफ़्ता -
रफ़्ता
जिस्म ओ जां से उठ कर - -
मेरी रूह तक कर चला
है जज़्ब इंतहा,
कहीं ये
जुनूं बढ़ते बढ़ते, न कर जाए
मुझे ख़ुद अपने से जुदा !

* *
-  शांतनु सान्याल

 

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Willem Haenraets Art 1.jpg

08 जून, 2023

जीवंत लहर - -

बहुत सारे एहसास भाषाहीन रह जाते हैं
उम्र भर शब्दों में ढल ही नहीं पाते,
बोन्साई पौधों की तरह बस
बरगद को निष्पलक
देखा करते हैं,
असंख्य  
अनुभूतियां शून्य सतह पर तैरती रहती
हैं लेकिन उनकी मृत्यु नहीं होती,
दरअसल सीने के बहुत अंदर
एक जीवंत लहर का घर
होता है, जो जीवन
को हर हाल में
सूखने नहीं
देता, हम
चाह
कर भी उस भंवर जाल से निकल नहीं पाते,  
बहुत सारे एहसास भाषाहीन रह जाते हैं
उम्र भर शब्दों में ढल ही नहीं पाते।
मेरी हथेली पर जो तुम ने
अपना हाथ रखा है
उस में कितना
विश्वास है
छुपा,
कहना बहुत कठिन है, फिर भी देहात्म की
यात्रा कभी रूकती नहीं, ज़रूरी नहीं कि
दो देह रहें चिरस्थायी एक परिपूरक
समीकरण, फिर भी अदृश्य
प्रणय सेतु कभी टूटना
नहीं चाहिए, कई
नदियां दूर तक
समानांतर
रेखा की
तरह
बहती हैं साथ साथ, फिर भी दो तट बंध - -
आपस में कभी मिल नहीं पाते, बहुत
सारे एहसास भाषाहीन रह
जाते हैं उम्र भर शब्दों
में ढल ही नहीं
पाते।
* *
- - शांतनु सान्याल


जीवन - -

जीवन की परिभाषाएं जो तुमने गढ़ी
वास्तविकता से कहीं दूर थीं,
ज़िन्दगी हमने भी जी है
हर पल ख़ुद को छला,
न कोई फूल ही
मुस्कराता
पाया,
न चांदनी को  गुनगुनाते,
घाटियाँ उदास थीं
झरनों में थे
अदृश्य
इन्द्रधनुष, मायावी,  स्वप्नमयी
पृथ्वी, तुम्हारी कृति, हम ने
तो हर तरफ सिर्फ़ नग्न
सत्य देखा ।

-- शांतनु सान्याल


07 जून, 2023

रहने दे भरम ज़रा ज़रा

रहने दे भरम क़ायम कुछ देर ही सही, 
उनको है शायद मुझसे अपनापन ज़रा ज़रा,

फिर चाहती है ज़िन्दगी उजरत क्यूँ कर, 
क़िस्तों में उठी है फिर ये धड़कन  ज़रा ज़रा, 

उड़ती हैं तितलियाँ बचा काँटों से पंख अपने, 
फिर खौफज़दा सा  है, लड़कपन ज़रा ज़रा, 

वक़्त ने छीन लिया रंगों नूर कोई बात नहीं, 
जानता है मुझे वो क़दीम दरपन ज़रा ज़रा,
  
लिखे थे कभी उसने ज़िन्दगी पे क़िस्से हज़ार,
है आशना मुझसे उजड़ा अंजुमन ज़रा ज़रा,  

बरगद के साए पे कम ज़ कम न रख बाज़बिनी, 
धूप ओ छांव का है अपना चलन ज़रा ज़रा,

न मिटा पायी अह्सासे इंसानियत, तूफां भी,
उठते हैं दिलों में, दर्द यूँ आदतन ज़रा ज़रा, 

-- शांतनु सान्याल 

उजरत - शुल्क 
आशना - पहचाना 
बाज़बिनी - सिकंजा 
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06 जून, 2023

बिखरे पंख - -

उम्र दराज़ दीवार पे कोई लिख गया सुबह का ठिकाना,
रात भर पलस्तर ढहते रहे, बस इतना ही था अफ़साना,

जीने की चाह में आदमी भटकता है, मंज़िल दर मंज़िल,
कौन चाहता है चंद सिक्कों की ख़ातिर दैहिक भोग लगाना,

यूँ ही दुनिया सिमट जाती है घर से निकल कर वापसी तक,
मुश्किल है मेरे दोस्त, ख़ुद के लिए कुछ पल ढूंढ कर लाना,

बिखरा पड़ा हूँ मैं, राज पथ के दोनों तरफ, बड़े बेतरतीब से,
इन टूटे हुए पंखों से आसान नहीं मृत पतंगों को खोज पाना,

फूल बेचते वो सभी नाज़ुक हाथ एक दिन पत्थर के हो जाएंगे,
बहुत कठिन है तामीर ए ख़्वाब तक ज़िन्दगी का पहुंच पाना |

- शांतनु सान्याल
 

दिल की ख़ूबसूरती

शायद वो लौट आए, बज़्म में भूली याद की तरह,
अपने दर्द वो अलम को यूँ ही सहलाए रखिये ,

फ़िज़ा ओ वादी में फिर धूप खिली है सहमी सहमी
अहाते दिल के कुछ मौसमी फूल सजाये रखिये,

न जाने किस मोड़ पे उसका पता लिखा हो ऐ दोस्त,
क़दीम ख़तूत से दिल को यूँ ही बहलाए रखिये,

हर दर पे है रौशन चिराग़ इस स्याह रात में फिर भी,
अंधेरों से भी अक्सर वाबस्तगी निभाए रखिये ,

चाँद ढलते फिर उठीं हैं जाग साहिल की सिसकियाँ,
परछाइयों से भी कभी कभी दामन बचाए रखिये,

आइना है बहोत ज़िद्दी, कोई समझौता न करना चाहे,
बीती लम्हात के कुछ अक्स दिल में बसाये रखिये ,

निगाह अश्क से थे लबरेज़ अहसास ए शबनम सही,
दिल की ख़ूबसूरती, यूँ ही मेरे दोस्त बनाये रखिये ,
- शांतनु सान्याल

05 जून, 2023

तेरी सांसों में कहीं - -

ये इश्क़ कहीं न जां से गुज़र जाए,
 
न देख फिर मुझे यूँ पुरअसरार
निगाहों से, जुम्बिश ए
जुनूं, कहीं दिल
से न छलक
जाए !
रहने दे भरम ज़िन्दा, यूँ ही मेरे -
जिस्म ओ जां में कि, तू है
मुक्कमल शामिल,
रूह ए गहराई
में दूर
तक, रहने दे यूँ ही लापरवाह मुझे
अपने पलकों के ज़ेर ए साया,
कहीं छूते ही सुरमयी
अहसास न बिखर
जाए !
तेरी सांसों में कहीं है मेरी मंज़िल,
काश ! ये वक़्त ज़रा ठहर
जाए, ये इश्क़ कहीं
न जां से गुज़र
जाए -

* *
- शांतनु सान्याल


 

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04 जून, 2023

चाँद निकलने से पहले - -

जीवन है उन्मुक्त शारदीय आकाश, भर
चली है साँझ जमुनिया अहसास,
ह्रदय वृंत में सजाओ फिर
कोई निशि पुष्प, न
रहो यूँ मौन
तलाशती हैं तुम्हें किसी की नम आँखें,
रोक लो ज़रा, भीगे मोतियों को
बिखरने से पहले, किसे
ख़बर, ये  क़ीमती
पल फिर मिले
न मिले,
जाग चली है रात मोम के शिखर पर यूँ
लहराकर, उड़ चली हों जैसे रंगीन
तितलियाँ पंखों में समेटे
निशिगंधा की सुरभि,
न रहो सीमान्त
की तरह
उदास,
कंटीली झाड़ियों में उलझ कर, कि मैंने
बड़ी चाहत से देखा है तुम्हें शाम
ढलते, ज़िन्दगी मुख़ातिब
है तुमसे, खोल भी दो
बंद दरवाज़े,
घाटियों में
जाएँ -
बिखर घनीभूत कोहरे की परतें, इक
मुद्दत से खिलने की आरज़ू लिए
बैठें है अविकसित केशर
की कोंपलें, मृग
नाभि में
हैं
बेचैन से सभी अर्ध सुप्त कस्तूरी कण !

- शांतनु सान्याल





03 जून, 2023

कुछ क्षणिकाएं - -

बहुत कुछ बुझने के बाद भी धुआं था
कि ऊपर उठता रहा,
बहुत कुछ कहने के बाद भी अंदर ही
अंदर दम घुटता रहा,

मरुनदी की तरह सभी स्वप्न एक दिन
हो जाएंगे जलविहीन,
खोजेंगे तब लोग जीवाश्म की परतों में
कुछ जलछवि रंगीन,

ये जो दिलों के दरमियां अदृश्य उठ
रही हैं पृथकता की दीवार,
एक दिन उजाड़ कर जाएंगी हर शै
को रह जाएगा शून्य संसार,

उन अधूरी बातों के मध्य से गुज़रती है
एक विशाल गहरी नदी,
न तुम इधर आ पाए, न मैं उसे पार कर
सका, यथावत निरावधि,
- शांतनु सान्याल

देखा है तुझे ज़िन्दगी - -

 पुरनम पलकों से गिरतीं उन बूंदों में कहीं यूँ 
बिखरता सा
देखा है तुझे ज़िन्दगी, 

बड़ा अपना सा लगे है वो पराया हो कर भी, 
उन गहरी सांसों में डूबता उभरता सा कई बार 
देखा है तुझे ज़िन्दगी,

मेरा अपना कुछ भी न था जो मैं दावा करूँ, 
नाज़ुक सीड़ियों से गिरता संभलता सा, कई बार 
देखा है तुझे ज़िन्दगी, 

अनजाना फ़र्श है ये, शफाफ़ शीशे की मानिंद 
उलझन में अक्सर जहाँ फिसलता सा कई बार 
देखा है तुझे ज़िन्दगी,

न जाने वो कौन थे जो खूं रिसते  पांव हैं गुज़रे,
इक रहगुज़र रात दिन यूँ सुलगता सा, कई बार 
देखा है तुझे ज़िन्दगी,

उनकी अपनी तरजीह की थी शायद फ़ेहरिस्त,
हमदर्दी के लिए बेवजह मचलता सा, कई बार 
देखा है तुझे ज़िन्दगी,

कोई ताजिर था जो बेच गया जज़्बाती रस्सियाँ,
रेशमी फंदों में कहीं दम घुटता सा, कई बार 
देखा है तुझे ज़िन्दगी |

-- शांतनु सान्याल
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02 जून, 2023

पिछले पहर की बरसात - -


न रोक अपने निगाहों के अक्स पलकों
के दायरे में, बिखरने दे रौशनी के
बूंद,  यूँ ही मद्धम - मद्धम,
बे - तरतीब, किसी 
ख़ूबसूरत
जज़्बात की तरह। उठ रहे हैं कोहरे के -
बादल, दूर पहाड़ों के बदन से, या
बोझिल सांसों में है रात ढलने
की थकन, एक  छुअन 
घेरे हुए है ज़िन्दगी
को गहराइयों
तक, किसी
पोशीदा तिलिस्मात की तरह। कोई -
बात तो ज़रूर है कि महकने से
लगे हैं बंजर ज़मीं के रास्ते,
तुमने शायद छुआ है
दिल की परतों को
आहिस्ता - -
पिछले
पहरवाली बरसात की तरह। बिखरने दे
रौशनी के बूंद,  यूँ ही मद्धम - मद्धम,
बे - तरतीब, किसी  ख़ूबसूरत
जज़्बात की तरह।

* *
- शांतनु सान्याल      







 

वापसी - -

वक्षस्थल के गहन में रहती है एक पोषित
पाखी, कभी शब्दों के पंख लिए उड़
जाती है शहर, ग्राम, नदी, सैकत
पार, कभी रहती है बरामदे में
बैठी हुई गुमसुम सी
एकाकी, वक्षस्थल
के गहन में
रहती है
एक पोषित पाखी। उस के घर लौट आने -
तक हिय में रहती है बंदरगाह सी बेचैनी,
विसर्ग, चंद्र बिंदु तैरते रहते हैं
निःश्वास के धरातल में,
शाम घिरते ही कांप
सी उठती है
जीवन
नैया,
ईशान कोण में सहसा उभर आते हैं झंझा - -
बैशाखी, वक्षस्थल के गहन में रहती है
पोषित पाखी। एक अजीब सी  
नीरवता होती है चौखट
पार, तुलसी के
नीचे जब
घिर
आता है अंधकार, दुःस्वप्न में कुछ कटे हुए
पंख तैरते से दिखाई देते हैं दूर तक
अपार, हज़ार आशंका लिए मन
में हम करते हैं अंतहीन
इंतज़ार, पथ में कहीं
खो जाती है अश्रु -
मय आँखि,
वक्षस्थल
के गहन
में रहती है एक पोषित पाखी।
* *
- - शांतनु सान्याल

01 जून, 2023

सुबह का इंतज़ार - -

तयशुदा है जब रात का
गुज़रना, फिर सुबह
का इंतज़ार कौन
करे। हम यूँ
भी मुकम्मल हो चुके
तुम्हारे अब क़िश्तों
में भला प्यार
कौन करे।
हाकिम ओ मुहाफ़िज़
सभी हैं हैरां, रूह
गुमशुदगी का
ऐतबार
कौन करे। किसी ने -
भी न देखा दो
बदन का
एक जान होना, वो -
हमआहंगी का
आलम, वो
रूहों का
एक होना, जो गुज़र
गए, वो लम्हात
अब भी हैं
सांसों में कहीं गुम, -
इक अहसास
ए ज़िन्दगी
थी उसकी
नज़दीकी, इस से -
ज़ियादा किसी
और चीज़
का तलबगार कौन करे।
* *
- शांतनु सान्याल
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