13 जून, 2023

क्या हुआ कि हर बार हार जाता हूँ - - -


अंतिम प्रहर की उन निस्तब्ध पलों में -
क्लांत रात्रि उतार जाती है उतरन,
कुछ फीके फीके आलोकपुंज 
चंद्राकार माथे का टिका,
झरित निशि पुष्पों 
का झूमर,
कुछ उदासीन देह गंध, परिश्रांत चन्द्रिमा, 
फिर भी ये ज़िन्दगी, हृदय चाहता 
तुम्हें आलिंगनबद्ध करना, 
सांसों में चिरस्थायी 
भरना, चुम्बनों 
से नए गीत 
रचना,
ये मेरी अभिलाषा कहो या वासना, मुझे -
कोई अंतर नहीं पड़ता, मैं चाह कर 
भी उसे यूँ व्यथित, आहत छोड़ 
नहीं सकता, तथागत बन 
नहीं सकता, एक 
अदना बूंद हूँ 
मैं, मुझे 
इसकी ख़बर है, लेकिन  बूंदों से ही भरते 
हैं समुद्र गहरे, खिलते हैं कंटीली 
झाड़ियाँ, उभरते हैं नव स्वप्न 
भीग कर शिशिर कणों
से, मैं जीवन को 
हर बार सजा  
जाता हूँ,
क्या हुआ कि हर बार हार जाता हूँ  - - - 

-- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/

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