अगन बिन लौ की, निशदिन तिल तिल झरत शरीर,
हिन्डोलित अलस नयन ज्यूँ बकुल लचकत डारी डारी,
देह अन्तःरंग बिलसित, कदम्ब झुके जस जमना तीर,
भरमाय चंद्रमल्लिका शेष पहर, अम्बुआ मुकुल सम,
पग झटकत मृग अकुलाय, मधुरिम बहत मृदु समीर,
पिघलत शशि कोर कोर, रह रह महुआ फूल झर जाय,
हिय से कभी न निकसे चाहे पांव पड़े दुनिया के जंजीर,
मधुर सुगंध, अंचरा भर भर जाय बनफूलन के सखी
पोर पोर रंग भरी किसने, बिन होरी उड़त रंग अबीर,
रह रह उठत हूक बंसी के, हिय घबराय, पथ भरमाय,
चाहे मन सकल तज दूँ मैं, सांवरे बिन छलकत धीर ,
निःशब्द समीह, कान्हा बांधत रह रह मधु बाहु डोर,
हिरनी सम ब्रज बाला, पग गिरत परत, होत अधीर।
- शांतनु सान्याल
- शांतनु सान्याल
बहुत सुन्दर और भाव पूर्ण गीत ..भाषा इसके सौंदर्य को और बढा रही है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संगीता जी, आपकी साहित्यिक गतिविधियों और रचनाओं के समक्ष ये नगण्य हैं, नमन सह/
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