मृत है वो नदी जो अंदर तक बहती
थी अनाविल धाराओं में, हर
कोई है सीमाबद्ध ख़ुद
तक मकड़जाल
हैं अंध
कंदराओं में,
न्याय अन्याय सब हैं बराबर
शुतुरमुर्ग़ सा व्यक्तित्व
है मेरा, सब कुछ देख
कर भी कुछ नहीं
देखा ख़ुश हूँ
घर की
पनाहों में,
फीते काटने का जश्न देखते
हुए, बूढ़ा गई निगाहों की
रौशनी, शिलालेख बन
कर रह गई है
ज़िंदगी,
कुछ
भी न बचा चाहों में,
एक टूटा हुआ चंद्रबिंदु आज भी
उभरता सा लगे तेरी आँखों में,
बेदख़ल किराएदार हूँ, मुद्दतों
से बैठा हूँ महानगर के
चौराहों में,
अनगिनत भागों में बांटा गया
मेरा वजूद कि शेष कुछ
भी नहीं, फिर भी
खोजता हूँ पल
भर की राहत
किसी
सायादार निगाहों में,
* *
- - शांतनु सान्याल
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