पुरनम पलकों से गिरतीं उन बूंदों में कहीं यूँ
बिखरता सा
देखा है तुझे ज़िन्दगी,
बड़ा अपना सा लगे है वो पराया हो कर भी,
उन गहरी सांसों में डूबता उभरता सा कई बार
देखा है तुझे ज़िन्दगी,
मेरा अपना कुछ भी न था जो मैं दावा करूँ,
नाज़ुक सीड़ियों से गिरता संभलता सा, कई बार
देखा है तुझे ज़िन्दगी,
अनजाना फ़र्श है ये, शफाफ़ शीशे की मानिंद
उलझन में अक्सर जहाँ फिसलता सा कई बार
देखा है तुझे ज़िन्दगी,
न जाने वो कौन थे जो खूं रिसते पांव हैं गुज़रे,
इक रहगुज़र रात दिन यूँ सुलगता सा, कई बार
देखा है तुझे ज़िन्दगी,
उनकी अपनी तरजीह की थी शायद फ़ेहरिस्त,
हमदर्दी के लिए बेवजह मचलता सा, कई बार
देखा है तुझे ज़िन्दगी,
कोई ताजिर था जो बेच गया जज़्बाती रस्सियाँ,
रेशमी फंदों में कहीं दम घुटता सा, कई बार
देखा है तुझे ज़िन्दगी |
-- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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आप ने लिखा.....
जवाब देंहटाएंहमने पड़ा.....
इसे सभी पड़े......
इस लिये आप की रचना......
दिनांक 04/06/2023 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है.....
इस प्रस्तुति में.....
आप भी सादर आमंत्रित है......
आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंमेरा अपना कुछ भी न था जो मैं दावा करूँ,
जवाब देंहटाएंनाज़ुक सीड़ियों से गिरता संभलता सा, कई बार
देखा है तुझे ज़िन्दगी,
-अच्छी लगी
आपका हृदय तल से आभार ।
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