शेष प्रहर रात्रि, अभी अभी एक द्रुतगामी रेल,
विक्षिप्त की तरह काँस फूलों के बीच,
शुभ्र ज्योत्स्ना को चीरती हुई, सुदूर
किसी वन्य नदी के जलधाराओं
को पृथक करती, धड़धड़ाती
हुई, निष्ठुरता के साथ
क्षितिज को भेदती,
कमलिनी के
आलिंगनबद्ध वृन्तों को थरथराती, झील के
स्थिरता को झकझोरती, नीलाभ्र आलोकित
स्वप्नों को चूर करती, न जाने कहाँ किस
गंतव्य की ओर यूँ दौड़ गई जैसे
कोई महाकाय सरिसर्प
समुद्र से सहसा
विकराल
विकराल
अग्निमुखी बन अम्बर को निगल जाना चाहे,
और चन्द्र तारक अन्तरिक्ष में एक दूसरे
से यूँ जा मिलें जैसे मालती लताएँ
सहस्त्र प्रसूनों को श्रृंखलित
सहस्त्र प्रसूनों को श्रृंखलित
करना चाहें, साधारण
जीवन सहमा
सहमा कई
बार, खिडकियों से उस रेल के गुज़रने को देखता
है और फिर फर्श में बिखरे हुए टूटे
है और फिर फर्श में बिखरे हुए टूटे
तारों को इकठ्ठा करता है।
- - शांतनु सान्याल
स्वरचित चित्र
- - शांतनु सान्याल
स्वरचित चित्र
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