मुक़्क़दस आग की
तरह, तुम ने ग़र
न देखा धुआं
अक़ीदत
का
क्या क़सूर हम ने ख़ुद को
मिटा दिया अनचाहे
बैराग की
तरह,
कहाँ से लायें वो यकीं जो
ख़ुदा को लाये सामने
हम ने ख़ुशियाँ
मिटा दी
उजड़े
हुए
सुहाग की तरह,
तुम्हारे इश्क़ में खो सी गयीं,
हमारी पहचान, दिल में
छुपाये रखा तग़ाफ़ुल
अनमिट
दाग़
की तरह,
इस जुस्तजू में उम्र कट गई
कि लौटेंगी बहारें एक
दिन, हैं सदियों से
बिखरे अरमां
सूखे वीरान
किसी
बाग़ की तरह,
फूलों के मौसम आये गए आसमां
रंग बदलता रहा, हम ने ख़ुद
को भुला दिया पुराने
नग़मा ए राग
की तरह,
जिस्म को हम ने जला दिया
मुक़्क़दस आग की तरह।
- शांतनु सान्याल
बहुत बढ़िया गज़ल ....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संगीता जी, अपने अमूल्य वक़्त से कुछ क्षण, प्रतिक्रिया देने के लिए - सस्नेह
जवाब देंहटाएंbahut sundar ...........aaone gudh shabda anyas hi kaha daale........ati sundar
जवाब देंहटाएंthanks ana ji for beautiful comment
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