पर झुके हैं वट शाखा प्रशाखा,
जटाएं, तट से कुछ दूर है
मालविका वन, अहंकार
यहाँ है मृत्युमुखी,
अनन्तां पृथिवीं
पश्यामि - .
उद्घोषित मन्त्र कहीं विलीनता को
दर्शाए, पुनर्जीवित हों सभी सुप्त
इच्छाएं जागृत हों स्वप्न
जो नदी तट ने ग्रास
किए श्रावणी
अझर वृष्टि
पूर्व,
देह धरणी, अतृप्त कामनाएं जो - -
मायाजाल बिछाएं प्रति क्षण,
विछिन्न्तायें बैराग के
संकेत नहीं होते,
जीवन चक्र
गतिमय
प्रतिपल, तटिनी सम ह्रदय लिए देखूं
एक तीर धूम्रमय पार्थिव शरीर
दूसरे कूल नव किशलय
गर्भित, मध्य श्रोत
अज्ञात, अदृश्य
किन्तु प्रवाहित
जलराशि चिर गतिमान, यहीं अभिनव
सृष्टि का है उदय, अहं अनन्तं
स्वप्नं पश्यामि - -
- शांतनु सान्याल
aapne to kamaal kar diya ......khub bhalo
जवाब देंहटाएंdhanyawad - ana di - regards, its little complicated poem, i m happy that you loved it,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 15 जून 2023 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी रचना चर्चा मंच के अंक
'चार दिनों के बाद ही, अलग हो गये द्वार' (चर्चा अंक 4668)
में सम्मिलित की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं।
सधन्यवाद।
आपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंबहुत गहन भाव
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
हटाएंखूबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंआपका हृदय तल से आभार ।
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