न रोक अपने निगाहों के अक्स पलकों
के दायरे में, बिखरने दे रौशनी के
बूंद, यूँ ही मद्धम - मद्धम,
बे - तरतीब, किसी
ख़ूबसूरत
जज़्बात की तरह। उठ रहे हैं कोहरे के -
बादल, दूर पहाड़ों के बदन से, या
बोझिल सांसों में है रात ढलने
की थकन, एक छुअन
घेरे हुए है ज़िन्दगी
को गहराइयों
तक, किसी
पोशीदा तिलिस्मात की तरह। कोई -
बात तो ज़रूर है कि महकने से
लगे हैं बंजर ज़मीं के रास्ते,
तुमने शायद छुआ है
दिल की परतों को
आहिस्ता - -
पिछले
पहरवाली बरसात की तरह। बिखरने दे
रौशनी के बूंद, यूँ ही मद्धम - मद्धम,
बे - तरतीब, किसी ख़ूबसूरत
जज़्बात की तरह।
* *
- शांतनु सान्याल
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