उम्र दराज़ दीवार पे कोई लिख गया सुबह का ठिकाना,
रात भर पलस्तर ढहते रहे, बस इतना ही था अफ़साना,
जीने की चाह में आदमी भटकता है, मंज़िल दर मंज़िल,
कौन चाहता है चंद सिक्कों की ख़ातिर दैहिक भोग लगाना,
यूँ ही दुनिया सिमट जाती है घर से निकल कर वापसी तक,
मुश्किल है मेरे दोस्त, ख़ुद के लिए कुछ पल ढूंढ कर लाना,
बिखरा पड़ा हूँ मैं, राज पथ के दोनों तरफ, बड़े बेतरतीब से,
इन टूटे हुए पंखों से आसान नहीं मृत पतंगों को खोज पाना,
फूल बेचते वो सभी नाज़ुक हाथ एक दिन पत्थर के हो जाएंगे,
बहुत कठिन है तामीर ए ख़्वाब तक ज़िन्दगी का पहुंच पाना |
- शांतनु सान्याल
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