29 जुलाई, 2022

सभी थे ख़ामोश - -

हज़ार तिर्यक रेखाओं के मध्य बनता है
एक घोंसला, अथक उड़ानों के बाद
कहीं जा कर कुछ श्वेत वृत्तों
में छुपे रहते हैं पीत -
वर्णी सपनों के
कण,
बारम्बार बिखरने के बाद भी जीवन नहीं
खोता है अपना हौसला, हज़ार तिर्यक
रेखाओं के मध्य बनता है एक
घोंसला । न जाने कितने
सांप सीढ़ियों से
उतर कर भी
हम नहीं
भूलते
आरोहण, ज़रूरी नहीं हासिल हों जीवन
में मनचाही वस्तु, अंतरतम का
संतोष ही होता है सच्चा
आभूषण, न जाने
किसे करना
चाहता है
परास्त,
झूल
रहा है तू अपने ही अंदर, अट्टहास कर - -
रहा है समय का झूला, अंतिम
प्रहर में थे सब चुप, क्या
मेरा ईश और क्या
तेरा मौला,
हज़ार
तिर्यक
रेखाओं के मध्य बनता है एक घोंसला ।
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 

25 जुलाई, 2022

ख़्वाब बिल्लौरी - -

पिघलती हुई हिमनद के अंतिम नोक पर
कहीं, इक ठहरा हुआ सा बिल्लौरी
ख़्वाब हो तुम, छू लूँ तुम्हें
बेख़ुदी में सुबह से
पहले, कोई
पहेली !
रेशमी धागों में गुथी, वो अक्स लाजवाब
हो तुम, इक ठहरा हुआ सा बिल्लौरी
ख़्वाब हो तुम। अनगिनत हैं
तुम्हारी बज़्म में सितारों
की चहल क़दमी,
कुछ बुझते
चिराग़
के
लौ भी चाहते हैं पुनर ज़िन्दगी, न जाने
कितने जन्मों के बाद  भटकती
रूहों का, पुरसुकूं इन्तख़ाब
हो तुम, इक ठहरा
हुआ सा बिल्लौरी
ख़्वाब हो
तुम।
* *
- - शांतनु सान्याल


 

 

22 जुलाई, 2022

उजाले का क़तरा - -

 

विस्तृत ख़ामोशी में एक अनंत

अंधकार गुफा तलाशती है

एक उजाले का क़तरा,

सभी गुज़र जाते हैं

अपनी अपनी

राह, कहना

बड़ा ही

सहज

है

कि तुम्हें मुझ से है मुहोब्बत बेपनाह, लेकिन ये भी

सच है कि कौन

किस के लिए 

देर तक है

ठहरा, 

अंधकार गुफा तलाशती है एक

 उजाले का क़तरा ।

अक्सर देखता हूँ

मैं एक ग्राफ़,

सूखी और

भरी नदी

के मध्य,

कुछ

सरकते हुए नम बादल खोजते

हैं वीरान पृष्ठों में अतीत के

पद्य, जीवन का रहस्य 

तब लगता है बहुत 

ही गहरा, अंधकार

गुफा तलाशती

है एक उजाले

का

क़तरा ।

**

- - शांतनु सान्याल 




19 जुलाई, 2022

अमिट सत्य - -

मृत्यु अमिट सत्य है अपनी जगह,

और सत्य की मृत्यु

कभी होती नही, वो 

निर्वस्त्र हो कर 

अंतरतम के

सौंदर्य

को

उजागर करता है, सत्य को

कहने और सुनने का 

साहस ही जीवंत

रखता है मानव

को, वो सभी

धर्म एक

दिन

हो जाएंगे विलीन जो रखते

हैं धर्म को मानवता के

शीर्ष पर, समय हर

एक दंभ का मौन

संहार करता

है, सत्य

की

मृत्यु कभी होती नहीं, वो निर्वस्त्र 

हो कर अंतरतम

के सौंदर्य को उजागर

करता है ।

**

- - शांतनु सान्याल

15 जुलाई, 2022

पुनरागमन - -

हर शख़्स की है अपनी कल्पना, अपनी ही
भविष्यवाणी, जल प्रलय हो या हिम -
युग की वापसी, या भस्मीभूत
होती हुई ये ख़ूबसूरत
पृथ्वी, शून्य से
शून्य तक
फिर भी
रहती है कहीं न कहीं, आबाद ये यायावर
ज़िन्दगी ! सभी कुछ बिखर जाएंगे
एक दिन, सरल कहाँ, रेत के
घरौंदों को पागल लहरों
से बचाना, बिखरे
पड़े रहेंगे बस
कुछ सीप
शंख
के खोल, कदाचित मिल जाए तुम्हें कोई
दिव्य मोती, न भूलना, इस किनारे
पर पुनः आना, पाओगे हर
हाल में कहीं न कहीं,
अदृश्य प्रणय की
मौजूदगी,     
शून्य
से शून्य तक फिर भी रहती है कहीं न -
कहीं, आबाद ये यायावर ज़िन्दगी !
* *
- - शांतनु सान्याल   

14 जुलाई, 2022

प्रभात पूर्व जागरण - -

मैंने देखा है दूर तक एक जुलूस, हाथों में लिए
हुए पत्थर, और ओंठों पर मानवता का
सिंहनाद, एक विषाक्त प्रवाह में
बहते हुए लोग, बच्चे, बूढ़े,
जवान, स्त्री, पुरुष, न
जाने किस ग्रह को
करना चाहते हैं
आज़ाद,  
हाथों
में लिए हुए पत्थर, और ओंठों पर मानवता -
का सिंहनाद ! रात के अंतिम प्रहर का
कोई दुःस्वप्न, अदृश्य नशे में
धुत लोग, हाथों में लिए
हुए खड्ग - खंजर
बढ़ चले हों जैसे
वध स्थल
की ओर,
न जाने किस मिथ्या प्रतिश्रुति के वशीभूत,
जी रहे हैं लोग विरोधाभास का जीवन,
वसुधैव कुटुम्बकम् के लोग अभी
तक सो रहे हैं बेख़बर, जबकि
हर तरफ है सुलगता
हुआ धर्म -
उन्माद,
हाथों में लिए हुए पत्थर, और ओंठों पर - -
मानवता का सिंहनाद !
* *
- - शांतनु सान्याल












 

10 जुलाई, 2022

असमाप्त दहन - -

अंतहीन होते हैं अभिलाषित वर्षा वन,
ज्वलंत मरुभूमि की तरह वक्ष -
स्थल में रहते हैं अदृश्य
भावनाएं, इस पार से
उस पार तक
विद्यमान,
फिर भी
रहती
है
सदा, मौन ओंठों पर एक हलकी सी -
मुस्कान, ठूंठ भी तलाशते हैं
अपना प्रतिबिम्ब, मौन
होता है लेकिन जल
दर्पण, अंतहीन
होते हैं
अभिलाषित वर्षा वन । नील पर्वतों से
अब भी उठ रहा है धुआं अनवरत,
कहने को तमाम रात बरसे
हैं बादल, कदाचित
अरण्य गर्भ में
बिखरे पड़े
हैं कुछ
स्वप्न क्षत - विक्षत, फिर भी हर हाल
में, नदी के संग उतरता है तलहटी
की ओर, संघर्षरत ये जीवन,
अंतहीन होते हैं
अभिलाषित
वर्षा वन।
* *
- - शांतनु सान्याल
 

08 जुलाई, 2022

आज़ादी ए फ़रेब - -

न कहना किसी से किस्सा ए दग़ाबाज़ी,
कहीं लोग दोस्ती करना न छोड़ दें,
वो महज तस्सवुर है या हक़ीक़ी,
मेरा ख़ुदा या तेरा ईश्वर, न
खोल राज़ ए अक़ीदत,
कि राहे यक़ीं पे
लोग चलना
न छोड़
दें,
कहीं लोग दोस्ती करना न छोड़ दें । वो
सभी क़ाबिल ए फ़ख़्र, महल ओ
क़िले ढह गए, ख़ामोश आह
के आगे, कोई दिव्य
किताब की मर्ज़ी
नहीं चलती,
सैलाब

वक़्त के साथ न जाने कितने शहंशाह
बह गए, न बना कांच के सराय
धुंध भरी वादियों में, कि
तेरे अपने भी तेरे
साथ ठहरना
न छोड़
दें,
कहीं लोग दोस्ती करना न छोड़ दें - -
* *
- - शांतनु सान्याल

 
 

03 जुलाई, 2022

हासिल कुछ भी नहीं - -

न जाने कहाँ गुम हैं सभी वो इंसानी क़ैफ़ियत,
हर एक चेहरे के पीछे छुपा सा है कोई न
कोई वहशी सूरत, किस पर करे
यक़ीं, किस से गले मिलें,
न जाने कैसी आग
सीने में लिए
फिरते
हैं
लोग, ख़ून के रंग में कोई फ़र्क़ नहीं फिर भी
न जाने क्यूँ भूल जाते हैं, बार - बार
उसकी असलियत, न जाने
कहाँ गुम हैं सभी वो
इंसानी क़ैफ़ियत ।
सभी पोथी -
पुराण
के
पृष्ठों पर हैं, बिखरे हुए लहू के दाग़, कौन
रोप गया, उर्वर भूमि के नीचे ज़हर के
बीज, धुआं धुआं  सा उठ रहा है हर
तरफ, कुम्हलाए दरख्तों में
झूलते से हैं नफ़रत के
झाग, ये कैसा
जूनून सा
छाया
है
हर सिम्त, जिधर देखो सिर्फ़ है बर्बरियत
और बर्बरियत, सर झुकाए रो रही है
इंसानियत - -
* *
- - शांतनु सान्याल  
 

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past