अंतहीन होते हैं अभिलाषित वर्षा वन,
ज्वलंत मरुभूमि की तरह वक्ष -
स्थल में रहते हैं अदृश्य
भावनाएं, इस पार से
उस पार तक
विद्यमान,
फिर भी
रहती
है
सदा, मौन ओंठों पर एक हलकी सी -
मुस्कान, ठूंठ भी तलाशते हैं
अपना प्रतिबिम्ब, मौन
होता है लेकिन जल
दर्पण, अंतहीन
होते हैं
अभिलाषित वर्षा वन । नील पर्वतों से
अब भी उठ रहा है धुआं अनवरत,
कहने को तमाम रात बरसे
हैं बादल, कदाचित
अरण्य गर्भ में
बिखरे पड़े
हैं कुछ
स्वप्न क्षत - विक्षत, फिर भी हर हाल
में, नदी के संग उतरता है तलहटी
की ओर, संघर्षरत ये जीवन,
अंतहीन होते हैं
अभिलाषित
वर्षा वन।
* *
- - शांतनु सान्याल
10 जुलाई, 2022
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बहुत सुंदर❤️🌻
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(११-०७ -२०२२ ) को 'ख़ुशक़िस्मत औरतें'(चर्चा अंक -४४८७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंबेहतरीन रचना।।।।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंउम्दा रचना आदरणीय ।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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