03 जुलाई, 2022

हासिल कुछ भी नहीं - -

न जाने कहाँ गुम हैं सभी वो इंसानी क़ैफ़ियत,
हर एक चेहरे के पीछे छुपा सा है कोई न
कोई वहशी सूरत, किस पर करे
यक़ीं, किस से गले मिलें,
न जाने कैसी आग
सीने में लिए
फिरते
हैं
लोग, ख़ून के रंग में कोई फ़र्क़ नहीं फिर भी
न जाने क्यूँ भूल जाते हैं, बार - बार
उसकी असलियत, न जाने
कहाँ गुम हैं सभी वो
इंसानी क़ैफ़ियत ।
सभी पोथी -
पुराण
के
पृष्ठों पर हैं, बिखरे हुए लहू के दाग़, कौन
रोप गया, उर्वर भूमि के नीचे ज़हर के
बीज, धुआं धुआं  सा उठ रहा है हर
तरफ, कुम्हलाए दरख्तों में
झूलते से हैं नफ़रत के
झाग, ये कैसा
जूनून सा
छाया
है
हर सिम्त, जिधर देखो सिर्फ़ है बर्बरियत
और बर्बरियत, सर झुकाए रो रही है
इंसानियत - -
* *
- - शांतनु सान्याल  
 

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