ज़रूरत से ज़ियादा समेटा न
कीजिए, बिखरने दें ख़ुश्बू
की मुग्धता अपनी
ही शर्तों पर,
ब'ज़ोर
हवाओं का रूख़ अपनी तरफ मोड़ा न
कीजिए, दिल की गहराइयों से जो
उठती हैं मौज ए इबादत, वो
आसमां को झुका जाए,
हर एक मोड़ पर
मसीहा नहीं
मिलते,
हर एक शख़्स के सामने अपने हाथ
यूँ ही जोड़ा न कीजिए, न कोई
सरसराहट, न कोई आहट,
मुद्दत हुए गुलशन से
बहारों का कूच
होना, यूँ ही
अचानक
से मेरी
ज़िन्दगी में आप आया न कीजिए, न
जाने क्यूँ वो फेंकते हैं रह रह कर
इक तिलस्मी छल्ला, अब कोई
ख़्वाब नहीं उभरते मेरी
आँखों में, बेवजह
यूँ ही आधी
रात,गहरी
नींद
को भरमाया न कीजिए, आंचल की
अपनी अलग है मजबूरी
ज़रूरत से ज़ियादा
समेटा न
कीजिए।
* *
- - शांतनु सान्याल
ख़्वाब नहीं उभरते मेरी
आँखों में, बेवजह
यूँ ही आधी
रात,गहरी
नींद
को भरमाया न कीजिए, आंचल की
अपनी अलग है मजबूरी
ज़रूरत से ज़ियादा
समेटा न
कीजिए।
* *
- - शांतनु सान्याल
बेहतरीन।♥️👌🌻
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंबहुत बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (15-5-22) को "प्यारे गौतम बुद्ध"'(चर्चा अंक-4431) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
------------
कामिनी सिन्हा
असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएं