09 मई, 2022

दो घड़ी के उस पार - -

उतरती दुपहरी में हुज़ूर, सुबह का अक्स
न तलाश करो, चल सको, तो चलो
कि दूर तक कोई मरुद्यान
नहीं, देह से लिपटे हैं
बेशुमार थूअर के
ज़ख़्म, इस
यात्रा में
कहीं
कोई अनुताप के लिए स्थान नहीं, जो -
मिल गया वही था, एक मुश्त
नियति का उपहार, जो खो
गया सो गया उसकी
वापसी का अब
न आस करो,
उतरती
दुपहरी में हुज़ूर, सुबह का अक्स न - -
तलाश करो। अजीब से हैं ये सभी
चाहतों के रिश्ते, इक छोर
से लपेटें, तो दूसरा
छोर ख़ुद ब
ख़ुद जाए 
खुल,
योग - वियोग करते रहे उम्र भर, अंतिम
प्रहर में शून्य के सिवा कुछ न मिला,
इक नशे से कुछ कम नहीं ये
ज़िन्दगी, काश आख़री
पहर से पहले ज़रा
सा जाएं संभल,
धूप - छांव
का ग्राफ
अपनी जगह होता है निरंकुश, जो पल -
हैं हासिल अभी वही हैं अनमोल
मोती, जो टूट के बिखर गए
सो बिखर गए उन्हें
सोच के ख़ुद को
न उदास
करो,
उतरती दुपहरी में हुज़ूर, सुबह का अक्स
न तलाश करो।
 * *
- - शांतनु सान्याल
 नागपुर

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (11-05-2022) को चर्चा मंच     "जिंदगी कुछ सिखाती रही उम्र भर"  (चर्चा अंक 4427)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    
    --

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