31 जुलाई, 2021

मुंतज़िर शाम - -

उड़ सको, तो उड़ जाओ पिंजरा बंद
कभी न था, आँख के पैमाइश
से न देखो आसमां का
रंग, दिल की
अथाह
गहराइयों में, कोई तुम सा हसीं न
था। जब तलक तलातुम से न
हो मुलाक़ात, राज़ ए
समंदर रहता है
ग़ैर क़ाबिल
ए हल,
मुद्दतों बाद जब आईने को देखा
तो पाया, मुझसे बड़ा कोई
अजनबी न था, उड़
सको, तो उड़
जाओ
पिंजरा बंद कभी न था। निःशर्त
इस जहाँ में कोई भी लेन -
देन नहीं होता, सब
लफ़्ज़ों की है
जादूगरी
कोई
किसी के लिए बेवजह बेचैन नहीं
होता, कहने को वो मेरा था
हमनफ़स, लेकिन उसे
मुझ पर भी यक़ीं
न था, उड़
सको,
तो उड़ जाओ पिंजरा बंद कभी -
न था।
* *
- - शांतनु सान्याल

30 जुलाई, 2021

पर्यटक टीला - -

अगिनत योजन, असंख्य कोस चलने
के बाद भी उस टीले पर वो अकेला
ही रहा, न जाने किस मोड़ से
मुड़ गए सभी परचित
चेहरे, कोहरे में
बाक़ी हैं
कुछ
तैरते हुए उँगलियों के निशान, जन्म -
जन्मांतर की पहेलियां रहस्य की
गुफ़ाओं में हैं अंकित, जान
पाए कोई तो हो जाए
निहाल, वरना
सोच लो
कि
ये जीवन महज इक माटी का ढेला ही
रहा, अगिनत योजन, असंख्य
कोस चलने के बाद भी उस
टीले पर वो अकेला
ही रहा। सुदूर
लहराता
सा
है अतृप्त चाहतों का पारावार, कुछ -
तैरते हुए रंगीन प्रवाल द्वीप,
कुछ डूबते उभरते हुए
स्वप्निल अंध -
मीन, उन
सब के
मध्य
से निकलता है कहीं अतल सत्य का
संसार, जो पा जाए आत्म मंथन
का सार, उसके लिए जीवन
इक मौसमी मेला ही
रहा, अगिनत
योजन,
असंख्य कोस चलने के बाद भी उस
टीले पर वो अकेला
ही रहा - -

* *
- - शांतनु सान्याल


29 जुलाई, 2021

कोई तो इस रहगुज़र आए - -

इस यक़ीं में गुज़ारी है, रात -
कि निगार ए सहर आए,
मिटा जाए रूह का
अंधेरा ऐसा
कोई
नामा-बर आए। उम्र भर की
तिश्नगी को मिल जाए
ज़रा सी राहत, भिगो
जाए सीने की
दहन, वो
बारिश
तरबतर आए। इस बस्ती के
चार - अतराफ़ हैं बे -
इंतिहा ख़ामोशी,
डूबने से
पहले
काश कहीं से कश्तियों की
ख़बर आए। मीर ए
क़ाफ़िला की
पुरअसरार
नियत
सभी
जानते हैं, अपाहिजों का है
जुलूस, जो बाब ए
असद से डर
जाए।
इस
बेज़ुबानी के असर - अंदाज़
हैं, बहोत ही ज़हरीले,
शाह को पता भी
न चले, कब
ताज सर
से
उतर जाए। माह कामिल
की रात है, हर सिम्त
है रौशनी के धारे,
कोह -आतिश-
फ़िशाँ की
तरह
आवाज़ न उभर आए। इस
यक़ीं में गुज़ारी है रात
कि निगार ए -
सहर आए।

* *
- - शांतनु सान्याल
अर्थ :   
१.  बाब ए असद - सिंहद्वार   
२. मीर ए क़ाफ़िला - यात्रा का नायक
३. नामा-बर - पत्र वाहक
४. कोह -आतिश- फ़िशाँ - ज्वालामुखी पर्वत
५ निगार - ए - सहर - सुहानी सुबह



28 जुलाई, 2021

देशांतर - -

दूर दूर तक कोई सीमान्त प्रहरी नहीं,
उम्र के पल्लव झर जाने से पहले,
आओ इस सजल निशीथ में
देशांतर हो जाएं, भीगे
उड़ान पुल से हो
कर सुदूर
नील
पर्वतों से उठते धुंध के समानांतर
खो जाएं। बिखरे पड़े रहने दो
विच्छिन्न अतीत के पृष्ठ,
किताब ए ज़िन्दगी
को फिर इक
नया
जिल्द क्यों न हम चढ़ाएं, वृष्टि में
भीगे फूलों को न छुओ, ये
एहसास हैं बड़े नाज़ुक,
छूते ही वृन्त से
झर जाएंगे,
इस पल
को
समो लो, रूह की अथाह गहराइयों
तक, इस के पहले कि हम और
तुम कालांतर हो जाएं, उम्र
के पल्लव झर जाने से
पहले, आओ इस
सजल निशीथ
में देशांतर
हो जाएं।

* *
- - शांतनु सान्याल
   
 






 

27 जुलाई, 2021

कूच से पहले - -

चला जा रहा हूँ निस्र्द्देश्य रास्तों से
अंतहीन है समुद्र का किनारा,
उतरे तो सही वो एक
बार घने बादलों
के हमराह,
उभर
जाए कदाचित डूबा हुआ साँझ तारा,
अंतहीन है समुद्र का किनारा।
उसे समझने की चाह में
सब कुछ भूल सा
चला हूँ, न
जाने
क्यूँ मेरा चेहरा लगता है अजनबी सा
जब कभी आइने से मिला हूँ, हर
तरफ है सावन की मोहमयी
फुहार, लेकिन सूखा पड़ा
सा है मेरे वक्षस्थल
का ओसारा,
अंतहीन
है
समुद्र का किनारा। मशाल वाहकों का
अफ़सोस कैसा, सभी नहीं होते
वंशानुगत पुरोधा, न जाने
किस मोड़ पर निःशब्द
दे जाएं धोखा, उम्र
भर ज़रूरी नहीं
कि लोग
रहें
बा वफ़ा, हर एक की होती है तरजीह
की फ़ेहरिश्त, सफ़र ज़िन्दगी का
रुकता नहीं किसी के लिए,
देह का नगर पड़ा
रहता है ज़मीं
पर बेजान
सा,
जब कूच कर जाए रूह का बंजारा, - -
अंतहीन है समुद्र का किनारा।

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 
 

26 जुलाई, 2021

बहता हुआ जज़ीरा - -

तहलील ए ज़िन्दगी है बेहिसाब,
बस राज़दान कोई नहीं, टूटे
हुए तारों की ख़बर
रखने वाला
आसमान
कोई
नहीं। बेरहम आंधियों की सर -
परस्ती में गुज़री है ये
ज़िन्दगी, साहिल
ए जुनूं का हूँ
बासिन्दा
सर पे
साइबान कोई नहीं। जाने किस
किनारे जा लगे बहता
हुआ वक़्त का
जज़ीरा,
मौज
दर
मौज ढूंढता हूँ, वैसे तो जान -
पहचान कोई नहीं।
ख़ानाबदोशी है
तक़दीर का
तक़ाज़ा,
जाने
कहाँ कब रुके, जद्दोजेहद में
है निहां सारी ख़ुशी यहाँ
मेहरबान कोई
नहीं।

* *
- - शांतनु सान्याल 

25 जुलाई, 2021

ख़ाली हाथ - -

जुनून ए सफ़र का है मुसाफ़िर,
तो मुस्तक़िल ठिकाना
कैसा, इक रात
का है
मजलिस ए हंगामा, गहरा
दिल लगाना कैसा।
उतर जाएंगे
सभी नूर
ए दरिया, ओ जुनूनी मौज
रफ़्ता रफ़्ता, वही दूर
तक धुंध की
दुनिया,
रमते जोगी का घर बसाना
कैसा। इस किनारे से
उस किनारे तक,
झूलता सा
है कोई
जादुई पुल, दरख़्त ए
काफ़ूर है ज़िन्दगी,
अंगारों से
आख़िर
घबराना कैसा। दास्तां ए
मजमु'आ अपनी
जगह, अब
भी हैं
दोनों हाथ ख़ाली,जब कूच
को है तारों का कारवां,
हक़ीक़ी क्या,
अफ़साना
कैसा।  
    
* *
- - शांतनु सान्याल
 

24 जुलाई, 2021

रूबरू शख़्सियत - -

अंजाम ए अदब है बेमानी,
जब हाकिम ही बज़्म
ए नशीं हो जाए,
कहाँ जा
इल्तिजा लिखवाएं, जब
मुंसिफ़ ही नुक्ता चीं
हो जाए। अपने
ही शहर में
फिरता
है वो
किसी अनजान मुहाजिर की
तरह, कौन पहचानेगा
उसे, जो शख़्स
अपने ही
घर में
अजनबी हो जाए। लख़्त ए
जिगर की ता'रीफ़ में,
तमाम अल्फ़ाज़ हैं
गोया गुमशुदा,
ख़ुद से
बाहर
निकल कर देखें, शायद
आसां ये ज़िन्दगी हो
जाए। ब 'अक्स
ए आइने के,
अंदर का
आदमी पहचानना नहीं आसां,
तन्हाइयों में ख़ुद के सामने
हों ख़ुद बरहना कुछ तो
जवाबदेही हो
जाए।

* *
- - शांतनु सान्याल     

 

23 जुलाई, 2021

ज़मीन का टुकड़ा - -

ठहाकों के नीचे हैं दफ़न अनगिनत
आहों के खंडहर, ज़रा सी खुदाई
न खोल जाए कहीं, राज़
ए पलस्तर। सीलन -
भरी रातों का
हिसाब
मांगती है ये ज़िन्दगी, टपकते हुए
छत को जवाब देते रहे ख़ाली
कनस्तर। ताउम्र घूमते
रहे पवनचक्की की
तरह अपने
आप,
ज़रा क्या रुके हम, लोग फेंकने
लगे ज़हर बुझे नश्तर। इक
अजीब कश्मकश से,
दो चार है वजूद
ए चिराग़,
सीने
में लिए हज़ार सिहरन जलता -
रहा कोई रातभर। सिरहाने
मेरे रात ढले, कौन
रख गया मीठी
सी छुअन,
ख़्वाहिश
ए जीस्त को जैसे मिल जाए - -
दुआ ए अस्तर। जाने
क्या क्या नहीं
करते हैं हम
पुरसुकूं
नींद
के वास्ते, आख़िर में वही - - -
आयताकार ज़मीं
होती है अपनी
बिस्तर।

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 


22 जुलाई, 2021

दूरबीनी नज़र - -

ये हथेलियों की है ज्यामिति
इसे समझना आसां
नहीं, चाहता है
दिल बहुत
कुछ,
कहने को बाक़ी अरमां नहीं।
लब ए बाम पर, कई
चिराग़ ए शाम
लोग जलाए
बैठे हैं,
रंगीन बुलबुलों का है मंज़र
ये उजला कोई आसमां
नहीं। जी चाहे किसी
भी नाम से
पुकारो,
बहता हुआ दरिया हूँ, ज़ब्त
करना मुझे आता है
यूँ तो कोई मेरा
निगह्बां
नहीं।
क़ौमियत का मोहर जो -
भी हो, परिंदों का
मज़हब है एक,
इस आलम

आवारगी के लिए कोई
ख़ास कारवां नहीं।
सोचो तो सारी
दुनिया है
घर
अपना वरना कुछ भी नहीं,
कोई भी नहीं मुबारक
सौ फ़ीसद, आज
हैं, कल यहाँ
नहीं।
इस भीड़ भरे भूल भुलैया में
न पा सकोगे गुमशुदा
मोती, दूरबीन से
लगते हैं सभी
बहुत
नज़दीक, ये दिल की ज़मीं है
यहाँ मुझसा कोई
तनहा नहीं।

* *
- - शांतनु सान्याल  
 
 






21 जुलाई, 2021

बैठक - ख़ाने का समंदर - -

न जाने कितने हैं लहर, शून्य के अंदर,
शायद तुमने देखा है दूर से सिर्फ
नीले कांच का समंदर, प्राण
विहीन शंख - सीप पड़े
रहते हैं साहिल ए
निजात पर,
लौटती
नहीं
है दिल की आवाज़, सुदूर बातीघर से
टकरा कर, शायद तुमने देखा है
दूर से सिर्फ नीले कांच का
समंदर। रहती है सभी
को, एक निरापद
आश्रय की
तलाश
ये और बात है कि हर एक ज़िन्दगी
को नहीं मिलता यहाँ एक रात
का निवास, लौट जाते हैं
सभी पखेरू अपने
नीड़ की ओर,
थम जाती
है रेल
पटरियों की झनझनाहट दूरगामी
ट्रेन जाने के बाद, रात के
साए में उठते हैं निर्वासन
के बवंडर, पनाह के
एवज में लोग
लूट लेते
हैं सब
कुछ, बिखरा होता है अवशोषित -
अस्तित्व शेष प्रहर, शून्यता
के सिवा कुछ नहीं होता
है तब अंदर बाहर,
न जाने कितने
हैं लहर,
शून्य के अंदर,शायद तुमने देखा
है दूर से सिर्फ नीले कांच का
समंदर, संभवतः कोई
रंगीन सपनों का
मछली -
घर।

* *
- - शांतनु सान्याल  





20 जुलाई, 2021

अब कुछ भी याद नहीं - -

वो उजली रात का समा, वो
ख़मोशी की ज़बां अब
याद नहीं, किस
मोड़ से उठा
था, वो
मद्धम, संदली धुंआ अब याद
नहीं। वो आख़री पहर था
या उरूज़े बज़्म का
आग़ाज़ कुछ
पता नहीं,
किस
मोड़ से आई थी ज़िन्दगी की
सदा वो मकां अब याद
नहीं।  सच है की उन
भीगे हुए लम्हों
ने बुझाई
थी इक
उम्र
की प्यास, कई बार की है -
ख़ुदकुशी लेकिन वो
मौत का कुंआ
अब याद
नहीं।
हज़ार बार गुज़रा हूँ मैं उसी
आतिशे दश्त से हो कर
*आब्ला - पा, हर
सिम्त थी
पुरअसरार
चुप्पी,
तबस्सुम का निशां अब याद
नहीं, वो उजली रात का
समा, वो ख़मोशी
की ज़बां अब
याद नहीं।

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 * छालेवाले पांव
 

19 जुलाई, 2021

मदारी का खेल - -

जब कोई उम्मीद नहीं किसी से,
मिलने बिछुड़ने का सवाल
कैसा, सभी रिश्तों में हैं
धुंधलापन गहरा,
बिखरने पर
इतना
बवाल कैसा। वो सभी जज़्बात
थे आब रंगी, एक शक़्ल
हुए बरसात से
मिलकर,
मक़ाम
ए इंतहा सभी का जब एक है,
फिर मुख़्तलिफ़ ख़्याल
कैसा।  कोहरे का
सफ़र आसां
नहीं
शरीके मुसाफ़िर बनने से क़ब्ल
सोच लो, ये सीढ़ियां उतरती
हैं सोच से गहरी फिर
न कहना कि
भूचाल
कैसा।
ये सड़क गुज़रती है ज़िन्दगी से
लम्बे सुरंगों से होकर सिफ़र
के सिम्त, मंज़िल का
पता कोई नहीं
जानता,
सब
मदारी का खेल है इंद्रजाल कैसा।

* *
- - शांतनु सान्याल 

18 जुलाई, 2021

प्रतिबिंबित वर्णमाला - -

कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे
स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के
बीच, कुछ निरीह स्वप्न
नहीं छू पाते सुबह
की पहली
किरण,
बहुत कुछ रहता है असमाप्त इस -
जीवन में, कुछ स्मृतियां बसती
हैं वीरान रेलवे स्टेशन में।
कुछ उम्मीद बिखर
जाते हैं निद्रा -
विहीन
नयन कोर से, सूखी अरण्य लताएं
बंधे होते हैं फिर भी अदृश्य
किसी सिक्त डोर से,
जीने की अदम्य
आस होती
है इस
अप्रत्याशित आरोहण में, बहुत कुछ
रहता है असमाप्त इस जीवन
में। कुछ जीवन वृत्ति
जन्म से ही होते
हैं प्रकृत रूप
से जुझारू,
हर हाल
में तलाश लेते हैं रास्ता अपना, वो
लिख जाते हैं प्रतिबिंबित
वर्णमाला समय के
दर्पण में, कुछ
स्मृतियां
बसती
हैं वीरान रेलवे स्टेशन में।

* *
- - शांतनु सान्याल


16 जुलाई, 2021

बूंदों के हमराह - -

अकस्मात सभी मेघ अदृश्य हो गए,
उजली धूप दूर तक है बिखरी
हुई, उड़ चला है नील -
पंछी अनजान
दिगंत की
ओर,
स्मृति के अहाते पड़े हुए हैं सुख के
कुछ बूंद, कुछ अपरिभाषित
सजलता, पारदर्शी
खिड़कियों के
उस पार हैं
बहुत
कुछ, मसृण सतह पर वक़्त कभी
नहीं ठहरता। हथेलियों में
कहाँ रुकता है जल -
प्रपात, स्वप्निल
दुर्ग में हैं बंद
सभी अर्ध
सत्य,
कंगूरों के बीच से झांकता है धुंध -
भरा प्रभात, हमारे दरमियां
बहुत कुछ हो कर भी,
कुछ भी नहीं होता,
कई बार उभरा
हूँ मैं डूब
कर,
कई बार लौट आए मेरे हाथ गहन
शून्यता के साथ, फिर भी
ज़िन्दगी ढूंढती है वही
गुमशुदा बरसात
की रात, ये
और
बात है कि हथेलियों में नहीं रुकते
हैं जलप्रपात।
* *
- - शांतनु सान्याल

15 जुलाई, 2021

अंधानुकरण - -

अद्भुत है दुनिया का चलन, उध्वस्त
घरों में सत्पुरुष गुज़ारे है अपना
जीवन, कलंकित नायकों
को यहाँ मिलता हैं
राजत्व का
सिंहासन,
अद्भुत
है दुनिया का चलन। अट्टालिकाओं
के नीचे ही बसते हैं सामयिक
अनेक संसार, वही चक्र
सदियों से घूमता
हुआ पीढ़ी दर
पीढ़ी,
ईंट ढोते कांधों का होता है केवल
बदलाव, जीवन जीते हैं लोग
बस नियति के अनुसार,
कानी कौड़ी भी नहीं
उनके पास जो
उम्र भर
करते
रहे हिरक खनन, अद्भुत है दुनिया
का चलन। चाटुकारों की इस
सभा में, हर चेहरा रखता
है अपने अंदर एक
छिपा हुआ
चेहरा,
इस महफ़िल का का सदस्य होता
है अल्पकालीन अंधा और
बहरा, हर कोई करता
हैं यहाँ भेड़ों की
तरह नग्न
राजन
का
सम्मोहित अनुकरण, अद्भुत है - -
दुनिया का चलन, उध्वस्त
घरों में सत्पुरुष गुज़ारे
है अपना
जीवन।

* *
- - शांतनु सान्याल

Painting - Kate Bedell


12 जुलाई, 2021

अभ्यन्तर गंध - -

रात गहराते ही उतरता है अंधकार, धुंध की
सीढ़ियों से हो कर, वक्षस्थल की अथाह
गहराइयों में, पुनर्जन्म के सभी
मिथक तब लगते हैं बहुत
सत्य, ज़िन्दगी बढ़ती
जाती है तुम्हारी
तरफ, लम्हा
लम्हा -
लांघ कर विस्तृत सहारा की तपन, तुम्हारे
प्रणय वृक्ष की परछाइयों में, उतरता है
अंधकार, धुंध की सीढ़ियों से हो
कर, वक्षस्थल की अथाह
गहराइयों में। सहसा
जाग उठते हैं
सभी -
चन्दन अरण्य और सहस्त्र मौलश्री उपवन,
ज़िन्दगी खोजती है तुम्हें दूर तक, वन
वीथिकाओं से हो कर, शहर की अंध
गलियों तक, कृष्णमृग की तरह
मैं भटकता हूँ अनंत गंध की
खोज में, जबकि तुम हो
समाहित नाभि से
ले कर ह्रदय
के बहुत
अंदर,
न जाने क्यों प्रतिध्वनित प्यास गूंजता है
तमाम रात अहसास की खाइयों में,
उतरता है अंधकार, धुंध की
सीढ़ियों से हो कर,
वक्षस्थल की
अथाह
गहराइयों में।

* *
- - शांतनु सान्याल

 

 
 




11 जुलाई, 2021

सुबह की आहट - -

निःसीम शून्यता के बाद भी तुम्हें
पाने की है चाहत बाक़ी, अंतहीन
दीर्घश्वास है ज़िन्दगी, फिर
भी अलविदा कैसे कहें,
इस मौन संवाद में
हैं अनगिनत
लहरों के
ध्वनि,
ईशान कोणीय मेघों का जमाव है
ज़रूरी, अभी अभी निशि पुष्पों
के वृन्त हैं खुले, गंध कोषों
को कुछ और उभरने दो,
अभी तो है केवल
निशीथ प्रहर,
अभी दीर्घ
रात को  
दूर
तक है चलना, कुछ और दुःखों -
को है चुपचाप सहना, कुछ
और तेरे सीने में है राहत
बाक़ी, निःसीम
शून्यता के
बाद भी
तुम्हें
पाने की है चाहत बाक़ी। न जाने
कहाँ बरस जाएं जुनूं के उस
पार ये आवारा बादल,
वो नहीं जानते
मरुधरा का
ठिकाना,
ताहम
ना
उम्मीद नहीं होती ये ज़िन्दगी, यूँ
ही लगा रहता है धुंध का आना
जाना, डूब के उभरने की
ख़्वाहिश कभी ख़त्म
होती नहीं, रात
ढलने को
है ज़रा,
अभी
सुबह की है आहट बाक़ी, निःसीम
शून्यता के बाद भी तुम्हें पाने
की है चाहत
बाक़ी।  

* *
- - शांतनु सान्याल
 






 
 
 


10 जुलाई, 2021

अंतर्लीन बोध - -

वो सर्दियों की नरम धूप, जो बह गई
थीं कुहासे के स्रोत में, तुमने फिर
स्पर्श किया है अहाते की सर
ज़मीं, फिर जी उठे हैं मृत
सागर की लहरें एक
नए आत्मबोध
में, वो
सर्दियों की नरम धूप, जो बह गई थीं
कुहासे के स्रोत में। मैं आज भी
हूँ मुंतज़िर उसी जगह जहाँ
पुरातन हिमनद का था
उद्गम, जहाँ कभी
हम मिले थे,
क्या तुम
आज
भी हो उन्मत्त, अमरत्व की खोज में,
वो सर्दियों की नरम धूप, जो बह
गई थीं कुहासे के स्रोत में।
झर जाएंगे परत दर
परत दरख़्तों के
सभी धूसर
लिबास,
फिर भी न मर पाएंगे अंदर के हरित
एहसास, तुम्हारे छुअन में छुपा
है कहीं एक सुधामय प्यास,
कई जनम लग जाएंगे
उसे समझने के
शोध में,
वो
सर्दियों की नरम धूप, जो बह गई थीं
कुहासे के स्रोत में।

* *
- - शांतनु सान्याल  
 
 


08 जुलाई, 2021

आईने के उस पार - -

कुछ देर का था मंज़र, कुछ हक़ीक़त और
कुछ आडम्बर, वो सभी थे मोमिन
ए जां, जिनके तेज़ धारों में
छुपे थे फ़रेब के ख़ंजर,
मुता'लबा यूँ तो
कम नहीं
उनका,
बघनखे अंदाज़ के क्या कहने, ऊपर से
मख़मली चादर, नीचे की तरफ दूर
तक कांटों के बंजर, कुछ देर का
था मंज़र, कुछ हक़ीक़त
और कुछ आडम्बर।
न जाने कौन है,
जो खड़ा
रहता
है क़ातिल मोड़ पर, थाम लेता है मुझे
नुक़्ता ए इंतहा पे सब कुछ छोड़
कर, क्षितिज पार दिखाई
देता है अक्सर कोई
रौशनी का
समंदर,
कुछ
देर का था मंज़र, कुछ हक़ीक़त और -
कुछ आडम्बर। दुनिया जीत कर
भी वो शख़्स था भीतर से
बहुत खोखला, ख़ुद से
हारा हुआ, तंज़ ए
आईने से बहोत
बौखलाया
हुआ,
उसने देखा था राज महल के अंदर ही
जिस्म का ढहता हुआ खण्डहर,
कुछ देर का था मंज़र, कुछ
हक़ीक़त और कुछ
आडम्बर।

* *
- - शांतनु सान्याल

 

05 जुलाई, 2021

यायावर ध्वनि - -

अंध रात के सीने पर, गूँजता रहा एकाकी
निस्वन, टूट कर बिखरते रहे बंजर
धरा पर कांच के सभी स्वर -
व्यंजन, जिन्हें जो भी
करना था दख़ल,
दोनों हाथ से
समेट ले
गए,
शून्यता के सफ़र में अब तलाशता है कुछ
बिखरे हुए शब्दों को ये जीवन, अंध
रात के सीने पर, गूँजता रहा
एकाकी निस्वन। मूक
प्रहर के उतार पर,
गूंजते हैं खुर
ध्वनि,
सहस्त्राधिक अश्वारोही गुज़रे हैं रौंद कर -
सपनों के उर्वर भूमि, राज पथ के
दोनों किनारे शताब्दियों से
लोग करते हैं मिथ्या
नर्तन, अंध रात
के सीने पर,
गूँजता
रहा
एकाकी निस्वन। कुछ भी नहीं बदलता है,
रणक्षेत्र हो या जीने की विवशता, महा
रक्तपात के बाद कुछ हो जाते हैं
अशोक सम्राट, और कुछ
बन जाते है समय
का झूठा दर्पण,
अंध रात
के सीने
पर,
गूँजता रहा एकाकी निस्वन।

* *
- - शांतनु सान्याल








04 जुलाई, 2021

अनाम फूल की ख़ुश्बू - -


वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू,
बिखरती, तैरती, उड़ती,
नीले नभ और रंग
भरी धरती के
बीच,
कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से
मिलने लाए सात सुरों
में जीवन के गीत,
वो कोई अबाध
नदी कभी
इस
तट कभी उस किनारे गाँव
गाँव, घाट घाट बैरागी
मनवा बंधना
कब जाने
पीपल
रोके,
बरगद टोके प्रवाह बदलती
वो कब रुक पाती,
कलकल सदा
बहती जाती
वो कोई
अनुरागी मुस्कान अधर
समेटे मधुमास, राह
बिखेरे अनेकों
पलास,
हो
कोई अपरिभाषित प्रीत - -
आत्मीयता का नाम
न दो ख़ुश्बू, पंछी
और नदी
रुक
नहीं पाते, रोको लाख मगर,
ये बंजारे भटकते जाते
सागर तट के
घरौंदें ज्यों
बहते
जाये उन्मुक्त लहरों के बीच।
* *
-- शांतनु सान्याल



03 जुलाई, 2021

जलमग्न प्रासाद - -

निमज्जित वो सभी जलपोत, जो कभी
उभर न पाएंगे, उसी के आसपास
कहीं बसती हैं रूपकथाओं की
दुनिया, कालांतर में कुछ
अभिलाष शैवाल हो
गए, कुछ ख़्वाब
बंद कमरों
के जाल
हो
गए, देर तक उस गहराई में, मेरे अपने
भी ठहर न पाएंगे, निमज्जित वो
सभी जलपोत, जो कभी उभर
न पाएंगे। आग्नेयगिरि
और सागर के मध्य,
वाष्पित धुंध के
सिवा कुछ
भी नहीं
होता,
ताहम डूबने की चाहत कभी नहीं रूकती,
ज़रूरी नहीं, सभी कश्तियों को एक
ठिकाना नसीब हो, कतिपय
रूह हैं कालजयी तैराक,
ज़िन्दगी जिनके
हथेलियों के
क़रीब
हो,
बाक़ी सभी किनारे की लहर की तरह लौट
कर फिर उधर न जाएंगे, निमज्जित
वो सभी जलपोत, जो कभी उभर
न पाएंगे।

* *
- - शांतनु सान्याल





 

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