अंध रात के सीने पर, गूँजता रहा एकाकी
निस्वन, टूट कर बिखरते रहे बंजर
धरा पर कांच के सभी स्वर -
व्यंजन, जिन्हें जो भी
करना था दख़ल,
दोनों हाथ से
समेट ले
गए,
शून्यता के सफ़र में अब तलाशता है कुछ
बिखरे हुए शब्दों को ये जीवन, अंध
रात के सीने पर, गूँजता रहा
एकाकी निस्वन। मूक
प्रहर के उतार पर,
गूंजते हैं खुर
ध्वनि,
सहस्त्राधिक अश्वारोही गुज़रे हैं रौंद कर -
सपनों के उर्वर भूमि, राज पथ के
दोनों किनारे शताब्दियों से
लोग करते हैं मिथ्या
नर्तन, अंध रात
के सीने पर,
गूँजता
रहा
एकाकी निस्वन। कुछ भी नहीं बदलता है,
रणक्षेत्र हो या जीने की विवशता, महा
रक्तपात के बाद कुछ हो जाते हैं
अशोक सम्राट, और कुछ
बन जाते है समय
का झूठा दर्पण,
अंध रात
के सीने
पर,
गूँजता रहा एकाकी निस्वन।
* *
- - शांतनु सान्याल
05 जुलाई, 2021
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आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंएकाकी निस्वन। कुछ भी नहीं बदलता है,
जवाब देंहटाएंरणक्षेत्र हो या जीने की विवशता, महा
रक्तपात के बाद कुछ हो जाते हैं
अशोक सम्राट, और कुछ
बन जाते है समय
का झूठा दर्पण,
अंध रात
के सीने
पर,
गूँजता रहा एकाकी निस्वन।
- कितनी सटीक पंक्तियाँ 👌
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंवाह! बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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