24 जुलाई, 2021

रूबरू शख़्सियत - -

अंजाम ए अदब है बेमानी,
जब हाकिम ही बज़्म
ए नशीं हो जाए,
कहाँ जा
इल्तिजा लिखवाएं, जब
मुंसिफ़ ही नुक्ता चीं
हो जाए। अपने
ही शहर में
फिरता
है वो
किसी अनजान मुहाजिर की
तरह, कौन पहचानेगा
उसे, जो शख़्स
अपने ही
घर में
अजनबी हो जाए। लख़्त ए
जिगर की ता'रीफ़ में,
तमाम अल्फ़ाज़ हैं
गोया गुमशुदा,
ख़ुद से
बाहर
निकल कर देखें, शायद
आसां ये ज़िन्दगी हो
जाए। ब 'अक्स
ए आइने के,
अंदर का
आदमी पहचानना नहीं आसां,
तन्हाइयों में ख़ुद के सामने
हों ख़ुद बरहना कुछ तो
जवाबदेही हो
जाए।

* *
- - शांतनु सान्याल     

 

8 टिप्‍पणियां:

  1. ब 'अक्स
    ए आइने के,
    अंदर का
    आदमी पहचानना नहीं आसां,
    तन्हाइयों में ख़ुद के सामने
    हों ख़ुद बरहना कुछ तो
    जवाबदेही हो
    जाए।..बिलकुल सही कहा आपने,लाजवाब गजल।

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  2. आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(२५-०७-२०२१) को
    'सुनहरी धूप का टुकड़ा.'(चर्चा अंक-४१३६)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  4. आदमी पहचानना नहीं आसां,
    तन्हाइयों में ख़ुद के सामने
    हों ख़ुद बरहना कुछ तो
    जवाबदेही हो
    जाए।--गहरी पंक्तियां।

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  5. शायद इसिलिये किसी शायर ने लिखा है हर आदमी में रहते है दो चार आदमी । अंदर के आदमी को पहचानना नही आसान । बेजोड़ रचना

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