तहलील ए ज़िन्दगी है बेहिसाब,
बस राज़दान कोई नहीं, टूटे
हुए तारों की ख़बर
रखने वाला
आसमान
कोई
नहीं। बेरहम आंधियों की सर -
परस्ती में गुज़री है ये
ज़िन्दगी, साहिल
ए जुनूं का हूँ
बासिन्दा
सर पे
साइबान कोई नहीं। जाने किस
किनारे जा लगे बहता
हुआ वक़्त का
जज़ीरा,
मौज
दर
मौज ढूंढता हूँ, वैसे तो जान -
पहचान कोई नहीं।
ख़ानाबदोशी है
तक़दीर का
तक़ाज़ा,
जाने
कहाँ कब रुके, जद्दोजेहद में
है निहां सारी ख़ुशी यहाँ
मेहरबान कोई
नहीं।
* *
- - शांतनु सान्याल
26 जुलाई, 2021
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वाह! बहुत उम्दा!!
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंवाह !! बेहतरीन !!
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंमन बंजारे की जद्दोजहद की भावपूर्ण व्यथा कथा | बहुत बढिया शांतनु जी | आपका काव्य दर्शन निशब्द करता है | हार्दिक शुभकामनाएं आपके लिए |
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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