वो उजली रात का समा, वो
ख़मोशी की ज़बां अब
याद नहीं, किस
मोड़ से उठा
था, वो
मद्धम, संदली धुंआ अब याद
नहीं। वो आख़री पहर था
या उरूज़े बज़्म का
आग़ाज़ कुछ
पता नहीं,
किस
मोड़ से आई थी ज़िन्दगी की
सदा वो मकां अब याद
नहीं। सच है की उन
भीगे हुए लम्हों
ने बुझाई
थी इक
उम्र
की प्यास, कई बार की है -
ख़ुदकुशी लेकिन वो
मौत का कुंआ
अब याद
नहीं।
हज़ार बार गुज़रा हूँ मैं उसी
आतिशे दश्त से हो कर
*आब्ला - पा, हर
सिम्त थी
पुरअसरार
चुप्पी,
तबस्सुम का निशां अब याद
नहीं, वो उजली रात का
समा, वो ख़मोशी
की ज़बां अब
याद नहीं।
* *
- - शांतनु सान्याल
* छालेवाले पांव
20 जुलाई, 2021
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सच है की उन
जवाब देंहटाएंभीगे हुए लम्हों
ने बुझाई
थी इक
उम्र
की प्यास, कई बार की है -
ख़ुदकुशी लेकिन वो
मौत का कुंआ
अब याद
नहीं
सुंदर अभिव्यक्ति...
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंनीम बेहोशी में खुद को टटोलती स्मृतियां
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंमर्मस्पर्शी सृजन
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंअंतर्मन को छूती सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार(२१-०७-२०२१) को
'सावन'(चर्चा अंक- ४१३२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंहज़ार बार गुज़रा हूँ मैं उसी
जवाब देंहटाएंआतिशे दश्त से हो कर
*आब्ला - पा, हर
सिम्त थी
पुरअसरार
चुप्पी,
तबस्सुम का निशां अब याद
नहीं, वो उजली रात का
समा, वो ख़मोशी
की ज़बां अब
याद नहीं।
बहुत ही प्यारी और हृदयस्पर्शी रचना सर
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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