20 जुलाई, 2021

अब कुछ भी याद नहीं - -

वो उजली रात का समा, वो
ख़मोशी की ज़बां अब
याद नहीं, किस
मोड़ से उठा
था, वो
मद्धम, संदली धुंआ अब याद
नहीं। वो आख़री पहर था
या उरूज़े बज़्म का
आग़ाज़ कुछ
पता नहीं,
किस
मोड़ से आई थी ज़िन्दगी की
सदा वो मकां अब याद
नहीं।  सच है की उन
भीगे हुए लम्हों
ने बुझाई
थी इक
उम्र
की प्यास, कई बार की है -
ख़ुदकुशी लेकिन वो
मौत का कुंआ
अब याद
नहीं।
हज़ार बार गुज़रा हूँ मैं उसी
आतिशे दश्त से हो कर
*आब्ला - पा, हर
सिम्त थी
पुरअसरार
चुप्पी,
तबस्सुम का निशां अब याद
नहीं, वो उजली रात का
समा, वो ख़मोशी
की ज़बां अब
याद नहीं।

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 * छालेवाले पांव
 

18 टिप्‍पणियां:

  1. सच है की उन
    भीगे हुए लम्हों
    ने बुझाई
    थी इक
    उम्र
    की प्यास, कई बार की है -
    ख़ुदकुशी लेकिन वो
    मौत का कुंआ
    अब याद
    नहीं

    सुंदर अभिव्यक्ति...

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  2. नीम बेहोशी में खुद को टटोलती स्मृतियां

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार(२१-०७-२०२१) को
    'सावन'(चर्चा अंक- ४१३२)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. हज़ार बार गुज़रा हूँ मैं उसी
    आतिशे दश्त से हो कर
    *आब्ला - पा, हर
    सिम्त थी
    पुरअसरार
    चुप्पी,
    तबस्सुम का निशां अब याद
    नहीं, वो उजली रात का
    समा, वो ख़मोशी
    की ज़बां अब
    याद नहीं।
    बहुत ही प्यारी और हृदयस्पर्शी रचना सर

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