08 जुलाई, 2021

आईने के उस पार - -

कुछ देर का था मंज़र, कुछ हक़ीक़त और
कुछ आडम्बर, वो सभी थे मोमिन
ए जां, जिनके तेज़ धारों में
छुपे थे फ़रेब के ख़ंजर,
मुता'लबा यूँ तो
कम नहीं
उनका,
बघनखे अंदाज़ के क्या कहने, ऊपर से
मख़मली चादर, नीचे की तरफ दूर
तक कांटों के बंजर, कुछ देर का
था मंज़र, कुछ हक़ीक़त
और कुछ आडम्बर।
न जाने कौन है,
जो खड़ा
रहता
है क़ातिल मोड़ पर, थाम लेता है मुझे
नुक़्ता ए इंतहा पे सब कुछ छोड़
कर, क्षितिज पार दिखाई
देता है अक्सर कोई
रौशनी का
समंदर,
कुछ
देर का था मंज़र, कुछ हक़ीक़त और -
कुछ आडम्बर। दुनिया जीत कर
भी वो शख़्स था भीतर से
बहुत खोखला, ख़ुद से
हारा हुआ, तंज़ ए
आईने से बहोत
बौखलाया
हुआ,
उसने देखा था राज महल के अंदर ही
जिस्म का ढहता हुआ खण्डहर,
कुछ देर का था मंज़र, कुछ
हक़ीक़त और कुछ
आडम्बर।

* *
- - शांतनु सान्याल

 

10 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (09-07-2021) को "सावन की है छटा निराली" (चर्चा अंक- 4120) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
    धन्यवाद सहित।

    "मीना भारद्वाज"

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