12 जुलाई, 2021

अभ्यन्तर गंध - -

रात गहराते ही उतरता है अंधकार, धुंध की
सीढ़ियों से हो कर, वक्षस्थल की अथाह
गहराइयों में, पुनर्जन्म के सभी
मिथक तब लगते हैं बहुत
सत्य, ज़िन्दगी बढ़ती
जाती है तुम्हारी
तरफ, लम्हा
लम्हा -
लांघ कर विस्तृत सहारा की तपन, तुम्हारे
प्रणय वृक्ष की परछाइयों में, उतरता है
अंधकार, धुंध की सीढ़ियों से हो
कर, वक्षस्थल की अथाह
गहराइयों में। सहसा
जाग उठते हैं
सभी -
चन्दन अरण्य और सहस्त्र मौलश्री उपवन,
ज़िन्दगी खोजती है तुम्हें दूर तक, वन
वीथिकाओं से हो कर, शहर की अंध
गलियों तक, कृष्णमृग की तरह
मैं भटकता हूँ अनंत गंध की
खोज में, जबकि तुम हो
समाहित नाभि से
ले कर ह्रदय
के बहुत
अंदर,
न जाने क्यों प्रतिध्वनित प्यास गूंजता है
तमाम रात अहसास की खाइयों में,
उतरता है अंधकार, धुंध की
सीढ़ियों से हो कर,
वक्षस्थल की
अथाह
गहराइयों में।

* *
- - शांतनु सान्याल

 

 
 




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