25 जुलाई, 2021

ख़ाली हाथ - -

जुनून ए सफ़र का है मुसाफ़िर,
तो मुस्तक़िल ठिकाना
कैसा, इक रात
का है
मजलिस ए हंगामा, गहरा
दिल लगाना कैसा।
उतर जाएंगे
सभी नूर
ए दरिया, ओ जुनूनी मौज
रफ़्ता रफ़्ता, वही दूर
तक धुंध की
दुनिया,
रमते जोगी का घर बसाना
कैसा। इस किनारे से
उस किनारे तक,
झूलता सा
है कोई
जादुई पुल, दरख़्त ए
काफ़ूर है ज़िन्दगी,
अंगारों से
आख़िर
घबराना कैसा। दास्तां ए
मजमु'आ अपनी
जगह, अब
भी हैं
दोनों हाथ ख़ाली,जब कूच
को है तारों का कारवां,
हक़ीक़ी क्या,
अफ़साना
कैसा।  
    
* *
- - शांतनु सान्याल
 

22 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-7-21) को "औरतें सपने देख रही हैं"(चर्चा अंक- 4137) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    --
    कामिनी सिन्हा

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  2. कृपया २६ की जगह २७ पढ़े
    कल थोड़ी व्यस्तता है इसलिए आमंत्रण एक दिन पहले ही भेज रही हूँ।

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  3. जादुई पुल, दरख़्त ए
    काफ़ूर है ज़िन्दगी,
    अंगारों से
    आख़िर
    घबराना कैसा।
    बहुत ही बेहतरीन

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  4. दोनों हाथ ख़ाली,जब कूच
    को है तारों का कारवां,
    हक़ीक़ी क्या,
    अफ़साना
    कैसा। ..बहुत सही

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  5. वाह। बहुत खूब । हर पंक्ति लाजवाब। सादर।

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  6. आदरणीय, दोनों हाथ ख़ाली,जब कूच
    को है तारों का कारवां,
    हक़ीक़ी क्या,
    अफ़साना
    कैसा।
    सारगर्भित रचना!--ब्रजेंद्रनाथ

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  7. बहुत ही सुंदर, सत्य को उजागर करती हुई रचना

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  8. बहुत ख़ूब शांतनु सान्याल जी,
    नज़ीर अकबराबादी की नज़्म याद आ गयी -
    सब ठाठ पड़ा रह जाएगा,
    जब लाद चलेगा बंजारा !
    सुना है कि सिक़न्दरे-आज़म भी ख़ाली हाथ ही गया था.

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