जब कोई उम्मीद नहीं किसी से,
मिलने बिछुड़ने का सवाल
कैसा, सभी रिश्तों में हैं
धुंधलापन गहरा,
बिखरने पर
इतना
बवाल कैसा। वो सभी जज़्बात
थे आब रंगी, एक शक़्ल
हुए बरसात से
मिलकर,
मक़ाम
ए इंतहा सभी का जब एक है,
फिर मुख़्तलिफ़ ख़्याल
कैसा। कोहरे का
सफ़र आसां
नहीं
शरीके मुसाफ़िर बनने से क़ब्ल
सोच लो, ये सीढ़ियां उतरती
हैं सोच से गहरी फिर
न कहना कि
भूचाल
कैसा।
ये सड़क गुज़रती है ज़िन्दगी से
लम्बे सुरंगों से होकर सिफ़र
के सिम्त, मंज़िल का
पता कोई नहीं
जानता,
सब
मदारी का खेल है इंद्रजाल कैसा।
* *
- - शांतनु सान्याल
19 जुलाई, 2021
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जय मां हाटेशवरी.......
जवाब देंहटाएंआपने लिखा....
हमने पढ़ा......
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें.....
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना.......
दिनांक 20/ 07/2021 को.....
पांच लिंकों का आनंद पर.....
लिंक की जा रही है......
आप भी इस चर्चा में......
सादर आमंतरित है.....
धन्यवाद।
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सटीक अभिव्यक्ति।शानदार सृजन।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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