30 जुलाई, 2019

कोई न जाने - -

कब दो किनारे मझधार में आ मिले -
केवल निशीथ के सिवा कोई न
जाने, बिहान भी था विस्मित
देख तरंगों का सर्पिल -
मिलन, धरा और
नभ का विभेद
उस पल
कोई न जाने। अनाहूत वृष्टि की तरह
कोई भिगो गया दूर तक मरू -
प्रांतर, अंतरतम से उठे
उस पल परम -
नाद गहरे,
सुख दुःख, अपने पराये, जन्म मृत्यु,
हिसाब किताब, प्रेम घृणा, सभी
उस पल विस्मृत अवसाद
ठहरे। किस मोड़ से
मुड़ना है किस
राह से
गुज़रना, कब चिता भस्म हो शून्य में
बिखरना, ये रहस्य उसके सिवा
और कोई न जाने। कब दो
किनारे मझधार में आ
मिले, केवल निशीथ
के सिवा कोई न
जाने।

* *
- शांतनु सान्याल 

26 जुलाई, 2019

अज्ञातवास - -

वो शबनमी अनुराग है कोई, या घुमन्तु मेघ,
हाथ बढ़ाते सिर्फ़ दे जाए एक सिक्त
अहसास, मेरी आँखों में फिर
सज चले हैं वादियों से
उतरती नरम
धूप, फिर
तुमने
छुआ है मुझे बेख़ुदी में यूँ लेके गहरी सांस - - !
झील में उतर आया हो जैसे आसमानी
शहर, या फिर तुम्हारे नयन हो
चले हैं छलकते मधुमास।
पहाड़ों की गोद में
फिर जुगनुओं
ने डाला
है डेरा, फिर तुम्हारे स्पर्श से जग उठे हैं सीने
के अनगिनत अज्ञातवास। क्या यही है
इंगित पुनर्जीवन का या फिर कोई
ख़्वाबों का उच्छ्वास। वो
शबनमी अनुराग है
कोई, या घुमन्तु
मेघ, हाथ
बढ़ाते सिर्फ़ दे जाए एक सिक्त अहसास, - - -

* *
- शांतनु सान्याल

25 जुलाई, 2019

आशियाना विहीन - -

गहराइयाँ हैं अंतहीन, कहने को नदी सूख चुकी,
ज़ेर ज़मीं अभी तक है मेरी आँखों की नमी,
यूँ तो जंगल की आग सारा चमन को
फूंक चुकी। न जाने कौन है इस
दौर का रहबर, मुस्कराता
है पुरअसरार निगाहों
से, इतना भी
ग़ुरूर ठीक
नहीं,
न जाने किस सिम्त उठे आतिशफ़िशां इन दर्द
की कराहों से। हम कल भी थे ख़ानाबदोश
हम आज भी हैं रूहे दरबदर, हमारा
ठिकाना कहीं नहीं, तुम्हारी
महफ़िलों का रंग जो
भी हो, रात ढले
उतर जाएगा,
हम हैं
क्षितिज पार के परिंदे हमारा आशियाना कहीं - -
नहीं।

* *
- शांतनु सान्याल

24 जुलाई, 2019

अमरबेल - -

कहाँ से लाएं पहली सी चाहत, उम्र के साथ -
आईना भी लगे है धुंधलाया सा, ये
तक़ाज़ा तुम्हारा, यूँ तो है बहुत
ही ख़ूबसूरत, लेकिन शाम
ढले हर फूल लगे है
मुरझाया सा।
उम्मीद
तुम्हारी यूँ तो चाँद रात से कम नहीं, लेकिन
सुबह के साथ जिस्म ओ जां लगे है
अपना नहीं, पराया सा। सीने
से उठता धुआँ और आँखों
की नमी रहे ओझल,
किसी अदृश्य
संधि के
तहत, ये और बात है कि चेहरा लगे उम्र भर
का सताया सा। न जाने आज भी तुम्हारी
मुस्कराहटों का तिलिस्म, मुझे मरने
नहीं देता, लगे सांसों के इर्द गिर्द
कोई अमरबेल तुम्हारा ही
है लगाया सा। कहाँ
से लाएं पहली
सी चाहत,
उम्र के साथ आईना भी लगे है धुंधलाया सा।

**
- शांतनु सान्याल

10 जुलाई, 2019

अब किसे है चाहत - -

हाशिए से उन्वान का सफ़र नहीं आसां,
हर एक मोड़ पर हैं पेंच बेशुमार,
न थाम सीढ़ियों को इतने
सख़्त हाथों से, अपनों 
ने ही मुझे गिराया
है कई बार।
अब वो
आए हैं पूछने हाले दिल मरीज़ का, जो
जीते जी मर चुका हज़ारों बार। ये
मख़मली पैबंद न भर पाएंगे
मेरे अरमानों को दोबारा,
अब किसे है चाहत,
आए या न आए
फ़सले बहार।
* *
- शांतनु सान्याल


 

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