03 फ़रवरी, 2021

कुम्हार का फ़लसफ़ा - -

उस अदृश्य कुम्हार के दिल में,
जाने क्या था फ़लसफ़ा,
चाहतों के खिलौने
टूटते रहे,
सजाया
उन्हें
जितनी दफ़ा, वो दोपहर की - -
धूप थी कोई मुंडेरों से
जाने कब उतर
गई, बेवजह
ही
तितलियों के रेशमी लम्स - - -
सीने से लगाए रखा,
कोई नजूमी था,
आधी रात,
देता
रहा ख़्वाबों को दस्तक, कच्चे
घड़े की हिसाबदारी कौन
करे, नुक़्सां हो या
नफ़अ, वक़्त
के सलीब
से
उतरा हूँ कई बार यूँ हैरत से न -
देखिए, अनगिनत हबीब
हैं मेरे जो आस्तीं में
रह कर देते
रहे दग़ा,
रंगमंच वही है प्रस्तरयुगीन, बस
मंज़र बदल जाते हैं, इन
चमकती हुई रंगीन
रौशनी में कौन
पराया कौन
सगा, उस
अदृश्य
कुम्हार के दिल में, जाने क्या था
फ़लसफ़ा।

* *
- - शांतनु सान्याल

 

 











25 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 2028...कलेंडर पत्र-पत्रिकाओं में सिमट गया बसंत...) पर गुरुवार 04 फ़रवरी 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  2. दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।

    जवाब देंहटाएं
  3. लाजबाब सृजन ,सादर नमन आपको

    जवाब देंहटाएं
  4. "रंगमंच वही है प्रस्तरयुगीन, बस
    मंज़र बदल जाते हैं, इन
    चमकती हुई रंगीन
    रौशनी में कौन
    पराया कौन
    सगा, उस
    अदृश्य
    कुम्हार के दिल में, जाने क्या था
    फ़लसफ़ा।"
    --
    बहुत बेहतरीन।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही खूबसूरत सृजन
    सुंदर शब्द संयोजन
    बधाई

    जवाब देंहटाएं
  6. रंगमंच वही है प्रस्तरयुगीन, बस
    मंज़र बदल जाते हैं, इन
    चमकती हुई रंगीन
    रौशनी में कौन पराया कौन सगा,
    वाह ! बेहतरीन !

    जवाब देंहटाएं

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past